कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 28 प्रेमचन्द की कहानियाँ 28प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अट्ठाइसवाँ भाग
फूलमती को जैसे सर्प ने डस लिया- क्या कहा! फिर तो कहना! मैं अपने ही संचे रूपये अपनी इच्छा से नहीं खर्च कर सकती?
'वह रूपये तुम्हारे नहीं रहे, हमारे हो गये।'
'तुम्हारे होंगे; लेकिन मेरे मरने के पीछे।'
'नहीं, दादा के मरते ही हमारे हो गये!'
उमानाथ ने बेहयाई से कहा- अम्माँ, कानून-कायदा तो जानतीं नहीं, नाहक उछलती हैं।
फूलमती क्रोध-विह्वल रोकर बोली- भाड़ में जाये तुम्हारा कानून। मैं ऐसे कानून को नहीं जानती। तुम्हारे दादा ऐसे कोई धन्नासेठ नहीं थे। मैंने ही पेट और तन काटकर यह गृहस्थी जोड़ी है, नहीं आज बैठने की छाँह न मिलती! मेरे जीते-जी तुम मेरे रूपये नहीं छू सकते। मैंने तीन भाइयों के विवाह में दस-दस हजार खर्च किये हैं। वही मैं कुमुद के विवाह में भी खर्च करूँगी।
कामतानाथ भी गर्म पड़ा- आपको कुछ भी खर्च करने का अधिकार नहीं है।
उमानाथ ने बड़े भाई को डाँटा- आप खामख्वाह अम्माँ के मुँह लगते हैं भाई साहब! मुरारीलाल को पत्र लिख दीजिए कि तुम्हारे यहाँ कुमुद का विवाह न होगा। बस, छुट्टी हुई। कायदा-कानून तो जानतीं नहीं, व्यर्थ की बहस करती हैं।
फूलमती ने संयमित स्वर में कहा- अच्छा, क्या कानून है, जरा मैं भी सुनूँ।
उमा ने निरीह भाव से कहा- कानून यही है कि बाप के मरने के बाद जायदाद बेटों की हो जाती है। माँ का हक केवल रोटी-कपड़े का है।
फूलमती ने तड़पकर पूछा- किसने यह कानून बनाया है?
उमा शांत स्थिर स्वर में बोला- हमारे ऋषियों ने, महाराज मनु ने, और किसने?
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