कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 28 प्रेमचन्द की कहानियाँ 28प्रेमचंद
|
1 पाठकों को प्रिय 165 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अट्ठाइसवाँ भाग
गंगा बढ़ी हुई थी, जैसे समुद्र हो। क्षितिज के सामने के कूल से मिला हुआ था। किनारों के वृक्षों की केवल फुनगियाँ पानी के ऊपर रह गयी थीं। घाट ऊपर तक पानी में डूब गये थे। फूलमती कलसा लिये नीचे उतरी, पानी भरा और ऊपर जा रही थी कि पाँव फिसला। सँभल न सकी। पानी में गिर पड़ी। पल-भर हाथ-पाँव चलाये, फिर लहरें उसे नीचे खींच ले गयीं। किनारे पर दो-चार पंडे चिल्लाए- 'अरे दौड़ो, बुढ़िया डूबी जाती है।' दो-चार आदमी दौड़े भी लेकिन फूलमती लहरों में समा गयी थी, उन बल खाती हुई लहरों में, जिन्हें देखकर ही हृदय काँप उठता था।
एक ने पूछा- यह कौन बुढ़िया थी?
'अरे, वही पंडित अयोध्यानाथ की विधवा है।'
'अयोध्यानाथ तो बड़े आदमी थे?'
'हाँ थे तो, पर इसके भाग्य में ठोकर खाना लिखा था।'
'उनके तो कई लड़के बड़े-बड़े हैं और सब कमाते हैं?'
'हाँ, सब हैं भाई; मगर भाग्य भी तो कोई वस्तु है!
4. बैंक का दिवाला
लखनऊ नेशनल बैंक के दफ्तर में लाला साईंदास आरामकुर्सी पर लेटे हुए शेयरों का भाव देख रहे थे और सोच रहे थे कि इस बार हिस्सेदारों को मुनाफा कहाँ से दिया जायगा। चाय, कोयला या जूट के हिस्से खरीदने, चाँदी, सोने या रुई का सट्टा करने का इरादा करते; लेकिन नुकसान के भय से कुछ तय न कर पाते थे। नाज के व्यापार में इस बार बड़ा घाटा रहा; हिस्सेदारों के ढाढ़स के लिए हानि-लाभ का कल्पित ब्योरा दिखाना पड़ा और नफा पूँजी से देना पड़ा। इससे फिर नाज के व्यापार में हाथ डालते जी काँपता था।
|