कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 28 प्रेमचन्द की कहानियाँ 28प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अट्ठाइसवाँ भाग
एकाएक उनकी दृष्टि घड़ी पर पड़ी। तीसरे पहर के चार बज चुके थे, परंतु घड़ी अभी दोपहर की नींद में मग्न थी। तारीख की सुई ने दौड़ में समय को भी मात कर दिया था। वह जल्दी से उठे कि घड़ी को ठीक कर दें, इतने में महारानी का कमरे में पदार्पण हुआ। साईंदास ने घड़ी को छोड़ा और महारानी के निकट जा बगल में खड़े हो गये। निश्चय न कर सके कि हाथ मिलायें या झुक कर सलाम करें। रानी जी ने स्वयं हाथ बढ़ा कर उन्हें इस उलझन से छुड़ाया।
जब कुर्सियों पर बैठ गये, तो रानी के प्राइवेट सेक्रेटरी ने व्यवहार की बातचीत शुरू की। बरहल की पुरानी गाथा सुनाने के बाद उसने उन उन्नतियों का वर्णन किया, जो रानी साहब के प्रयत्न से हुई थीं। इस समय नहरों की एक शाखा निकालने के लिए दस लाख रुपयों की आवश्यकता थी; परंतु उन्होंने एक हिंदुस्तानी बैंक से ही व्यवहार करना अच्छा समझा। अब यह निर्णय नेशनल बैंक के हाथ में था कि वह इस अवसर से लाभ उठाना चाहता है या नहीं।
बंगाली बाबू- हम रुपया दे सकता है, मगर कागज-पत्तर देखे बिना कुछ नहीं कर सकता।
सेक्रेटरी- आप कोई जमानत चाहते हैं।
साईंदास उदारता से बोले- महाशय, जमानत के लिए आपकी जबान ही काफी है।
बंगाली बाबू- आपके पास रियासत का कोई हिसाब-किताब है?
लाला साईंदास को अपने हेडक्लर्क का दुनियादारी का बर्ताव अच्छा न लगता था। वह इस समय उदारता के नशे में चूर थे। महारानी की सूरत ही पक्की जमानत थी। उनके सामने कागज और हिसाब का वर्णन करना बनियापन जान पड़ता था, जिससे अविश्वास की गंध आती है।
महिलाओं के सामने हम शील और संकोच के पुतले बन जाते हैं। साईंदास बंगाली बाबू की ओर क्रूर-कठोर दृष्टि से देख कर बोले- कागजों की जाँच कोई आवश्यक बात नहीं है, केवल हमको विश्वास होना चाहिए।
बंगाली बाबू- डाइरेक्टर लोग कभी न मानेगा।
साईंदास- हमको इसकी परवा नहीं, हम अपनी जिम्मेदारी पर रुपये दे सकते हैं।
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