लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 28

प्रेमचन्द की कहानियाँ 28

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9789
आईएसबीएन :9781613015261

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

165 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अट्ठाइसवाँ भाग


लखनवी महाशय ने कहा- आपका कहना सच है, लेकिन दूसरी जगह यह मजा कहाँ? यहाँ सुबह से शाम तक के बीच भाग्य ने कितनों को धनी से निर्धन और निर्धन से भिखारी बना दिया। सवेरे जो लोग महल में बैठे थे, उन्हें इस समय वृक्ष की छाया भी नसीब नहीं। जिनके द्वार पर सदावर्त खुले थे, उन्हें इस समय रोटियों के लाले पड़े हैं। अभी एक सप्ताह पहले जो लोग काल-गति, भाग्य के खेल और समय के फेर को कवियों की उपमा समझते थे इस समय उनकी आह और करुण क्रंदन वियोगियों को भी लज्जित करता है। ऐसे तमाशे और कहाँ देखने में आवेंगे?

कुँवर- जनाब, आपने तो पहेली को और गाढ़ा कर दिया। देहाती हूँ, मुझसे साधारण तौर से बात कीजिए।

इस पर एक सज्जन ने कहा- साहब, यह नेशनल बैंक है। इसका दिवाला निकल गया है। आदाब-अर्ज, मुझे पहचाना?

कुँवर साहब ने उसकी ओर देखा, तो मोटर से कूद पड़े और उनसे हाथ मिलाते हुए बोले- अरे, मिस्टर नसीम? तुम यहाँ कहाँ? भाई तुमसे मिलकर बड़ा आनंद हुआ।

मिस्टर नसीम कुँवर साहब के साथ देहरादून-कालेज में पढ़ते थे। दोनों साथ-साथ देहरादून की पहाड़ियों पर सैर करते थे, परंतु जब से कुँवर महाशय ने घर के झंझटों से विवश होकर कालेज छोड़ा, तब से दोनों मित्रों में भेंट न हुई थी। नसीम भी उनके आने के कुछ समय पीछे अपने घर लखनऊ चले आये थे।

नसीम ने उत्तर दिया- शुक्र है, आपने पहचाना तो। कहिए, अब तो पौ-बारह है। कुछ दोस्तों की भी सुध है?

कुँवर- सच कहता हूँ। तुम्हारी याद हमेशा आया करती थी। कहो, आराम से तो हो? मैं रायल होटल में टिका हूँ, आज आओ, तो इत्मीनान से बातचीत हो।

नसीम- जनाब, इत्मीनान तो नेशनल बैंक के साथ चला गया। अब तो रोजी की फिक्र सवार है। जो कुछ जमा-पूँजी थी, सब आपको भेंट हुई। इस दिवाले ने फकीर बना दिया। अब आपके दरवाजे पर आ कर धरना दूँगा।

कुँवर- तुम्हारा घर है, बेखटके आओ। मेरे साथ ही क्यों न चलो। क्या बतलाऊँ, मुझे कुछ भी ध्यान न था कि मेरे इनकार करने का यह फल होगा। जान पड़ता है बैंक ने बहुतेरों को तबाह कर दिया।

नसीम- घर-घर मातम छाया हुआ है। मेरे पास तो इन कपड़ों के सिवा और कुछ नहीं रहा।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book