कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 28 प्रेमचन्द की कहानियाँ 28प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अट्ठाइसवाँ भाग
अब शिवदास अपने मनोवेग को रोक न सका। उसके नेत्र डबडबा आये। कुँवर के गले से लिपट गया और बोला- भूला तो नहीं। पर आपके सामने आते लज्जा आती है।
कुँवर- यहाँ दूध की दूकान करते हो क्या? मुझे मालूम ही न था, नहीं अठवारों से पानी पीते-पीते जुकाम क्यों होता? आओ, इसी मोटर पर बैठ जाओ। मेरे साथ होटल तक चलो। तुमसे बातें करने को जी चाहता है। तुम्हें बरहल ले चलूँगा और एक बार फिर गुल्ली-डंडे का खेल खेलेंगे।
शिवदास- ऐसा न कीजिए, नहीं तो देखनेवाले हँसेंगे। मैं होटल में आ जाऊँगा। वही हजरतगंज वाले होटल में ठहरे हैं न?
कुँवर- हाँ, अवश्य आओगे न?
शिवदास- आप बुलायेंगे, और मैं न आऊँगा?
कुँवर- यहाँ कैसे बैठे हो? दूकान तो चल रही है न?
शिवदास- आज सवेरे तक तो चलती थी। आगे का हाल नहीं मालूम।
कुँवर- तुम्हारे रुपये भी बैंक में जमा थे क्या?
शिवदास- जब आऊँगा तो बताऊँगा।
कुँवर साहब मोटर पर आ बैठे और ड्राइवर से बोले- होटल की ओर चलो।
ड्राइवर- हुजूर ने व्हाइटवे कम्पनी की दूकान पर चलने की आज्ञा जो दी थी।
कुँवर- अब उधर न जाऊँगा।
ड्राइवर- जेकब साहब बारिस्टर के यहाँ भी न चलेंगे?
कुँवर- (झुँझला कर) नहीं, कहीं मत चलो। मुझे सीधे होटल पहुँचाओ।
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