कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 28 प्रेमचन्द की कहानियाँ 28प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अट्ठाइसवाँ भाग
कुँवर महाशय और अधिक न सोच सके। वह एक विकल दशा में पलंग पर से उठ बैठे और कमरे में टहलने लगे। थोड़ी देर बाद उन्होंने जंगले के बाहर की ओर झाँका और किवाड़ खोल कर बाहर चले गये। चारों ओर अँधेरा था। उनकी चिंताओं की भाँति सामने अपार और भयंकर गोमती नदी बह रही थी। वह धीरे-धीरे नदी के तट पर चले गये और देर तक वहाँ टहलते रहे। आकुल हृदय को जल-तरंगों से प्रेम होता है। शायद इसीलिए कि लहरें व्याकुल हैं। उन्होंने अपने चंचल चित्त को फिर एकाग्र किया। यदि रियासत की आमदनी से ये सब वृत्तियाँ दी जायेंगी, तो ऋण का सूद निकलना भी कठिन होगा। मूल का तो कहना ही क्या ! क्या आय में वृद्धि नहीं हो सकती? अभी अस्तबल में बीस घोड़े हैं। मेरे लिए एक काफी है। नौकरों की संख्या सौ से कम न होगी। मेरे लिए दो भी अधिक हैं। यह अनुचित है कि अपने ही भाइयों से नीच सेवाएँ करायी जायँ। उन मनुष्यों को मैं अपने सीर की जमीन दे दूँगा। सुख से खेती करेंगे और मुझे आशीर्वाद देंगे। बगीचों के फल अब तक डालियों की भेंट हो जाते थे। अब उन्हें बेचूँगा, और सबसे बड़ी आमदनी तो बयाई की है। केवल महेशगंज के बाजार के दस हजार रुपये आते हैं। यह सब आमदनी महंत जी उड़ा जाते हैं। उनके लिए एक हजार रुपये साल होना चाहिए। अबकी इस बाजार का ठेका दूँगा। आठ हजार से कम न मिलेंगे। इन मदों से पचीस हजार रुपये की वार्षिक आय होगी। सावित्री और लल्ला लड़के के लिए एक हजार रुपये काफी हैं। मैं सावित्री से स्पष्ट कह दूँगा कि या तो एक हजार रुपये मासिक लो और मेरे साथ रहो या रियासत की आधी आमदनी ले लो, और मुझे छोड़ दो। रानी बनने की इच्छा हो, तो खुशी से बनो, परंतु मैं राजा न बनूँगा।
अचानक कुँवर साहब के कानों में आवाज आयी-राम नाम सत्य है। उन्होंने पीछे मुड़ कर देखा। कई मनुष्य एक लाश लिये आते थे। उन लोगों ने नदी किनारे चिता बनायी और उसमें आग लगा दी। दो स्त्रियाँ चिंघाड़ कर रो रही थीं। इस विलाप का कुँवर साहब के चित्त पर कुछ प्रभाव न पड़ा। वह चित्त में लज्जित हो रहे थे कि मैं कितना पाषाण-हृदय हूँ। एक दीन मनुष्य की लाश जल रही है, स्त्रियाँ रो रही हैं और मेरा हृदय तनिक भी नहीं पसीजता ! पत्थर की मूर्ति की भाँति खड़ा हूँ। एकबारगी स्त्री ने रोते हुए कहा- हाय मेरे राजा ! तुम्हें विष कैसे मीठा लगा? यह हृदय-विदारक विलाप सुनते ही कुँवर साहब के चित्त में एक घाव-सा लग गया। करुणा सजग हो गयी और नेत्र अश्रुपूर्ण हो गये। कदाचित् इसने विष-पान करके प्राण दिये हैं। हाय ! उसे विष कैसे मीठा लगा। इसमें कितनी करुणा है, कितना दुख, कितना आश्चर्य ! विष तो कड़वा पदार्थ है। क्योंकर मीठा हो गया ! कटु विष के बदले जिसने अपने मधुर प्राण दे दिये उस पर कोई बड़ी मुसीबत पड़ी होगी। ऐसी ही दशा में विष मधुर हो सकता है। कुँवर साहब तड़प गये। कारुणिक शब्द बार-बार उनके हृदय में गूँजते थे। अब उनसे वहाँ खड़ा न रहा गया। वह उन आदमियों के पास आये, एक मनुष्य से पूछा-क्या बहुत दिनों से बीमार थे? इस मनुष्य ने कुँवर साहब की ओर आँसू-भरे नेत्रों से देख कर कहा- नहीं साहब, कहाँ की बीमारी ! अभी आज संध्या तक भली-भाँति बातें कर रहे थे ! मालूम नहीं, संध्या को क्या खा लिया कि खून की कै होने लगी। जब तक वैद्यराज के यहाँ जायँ, तब तक आँखें उलट गयीं। नाड़ी छूट गयी। वैद्यराज ने आकर देखा, तो कहा-अब क्या हो सकता है? अभी कुल बाईस-तेईस वर्ष की अवस्था थी। ऐसा पट्ठा सारे लखनऊ में नहीं था।
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