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प्रेमचन्द की कहानियाँ 28

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9789
आईएसबीएन :9781613015261

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अट्ठाइसवाँ भाग


मैंने वहां से दो मील पर एक अनजान मुहल्ले में एक मकान ठीक किया और रातो-रात असबाब उठवाकर वहां जा पहुंचा। वह घर छोड़कर मैं जितना खुश हुआ शायद कैदी जेलखाने से भी निकलकर उतना खुश न होता होगा। रात को खूब गहरी नींद सोया, सबेरा हुआ तो मुझे उस पंछी की आजादी का अनुभव हो रहा था जिसके पर खुल गये हैं। बड़े इत्मीनान से सिगरेट पिया, मुंह-हाथ धोया, फिर अपना सामान ढंग से रखने लगा। खाने के लिए किसी होटल की भी फिक्र थी, मगर उस हिम्मत तोड़नेवाली बला से फतेह पाकर मुझे जो खुशी हो रही थी, उसके मुकाबले में इन चिन्ताओं की कोई गिनती न थी। मुंह-हाथ धोकर नीचे उतरा। आज की हवा में भी आजादी का नशा था। हर एक चीज मुस्कराती हुई मालूम होती थी। खुश-खुश एक दुकान पर जाकर पान खाये और जीने पर चढ़ ही रहा था कि देखा वह तम्बोलिन लपकी जा रही है। कुछ न पूछो, उस वक्त दिल पर क्या गुजरी। बस, यही जी चाहता था कि अपना और उसका दोनों का सिर फोड़ लूं। मुझे देखकर वह ऐसी खुश हुई जैसे कोई धोबी अपना खोया हुआ गधा पा गया हो। और मेरी घबराहट का अन्दाजा बस उस गधे की दिमागी हालत से कर लो! उसने दूर ही से कहा- वाह बाबू जी, वाह, आप ऐसा भागे कि किसी को पता भी न लगा। उसी मुहल्ले में एक से एक अच्छे घर खाली हैं। मुझे क्या मालूम था कि आपको उस घर में तकलीफ थी। नहीं तो मेरे पिछवाड़े ही एक बड़े आराम का मकान था। अब मैं आपको यहां न रहने दूंगी। जिस तरह हो सकेगा, आपको उठा ले जाऊंगी। आप इस घर का क्या किराया देते हैं?

मैंने रोनी सूरत बना कर कहा- दस रुपये। मैंने सोचा था कि किराया इतना कम बताऊं जिसमें यह दलील उसके हाथ से निकल जाय। इस घर का किराया बीस रुपये हैं, दस रुपये में तो शायद मरने को भी जगह न मिलेगी।

मगर तम्बोलिन पर इस चकमे का कोई असर न हुआ। बोली- इस जरा-से घर के दस रुपये! आप आठ ही दीजियेगा और घर इससे अच्छा न हो तो जब भी जी चाहे छोड़ दीजिएगा। चलिए, मैं उस घर की कुंजी लेती आई हूं। इसी वक्त आपको दिखा दूं।

मैंने त्योरी चढ़ाते हुए कहा- आज ही तो इस घर में आया हूं, आज ही छोड़ कैसे सकता हूं। पेशगी किराया दे चुका हूं।

तम्बोलिन ने बड़ी लुभावनी मुस्कराहट के साथ कहा- दस ही रुपये तो दिये हैं, आपके लिए दस रुपये कौन बड़ी बात हैं यही समझ लीजिए कि आप न चले तो मैं उजड़ जाऊंगी। ऐसी अच्छी बोहनी वहां और किसी की नहीं है। आप नहीं चलेंगे तो मैं ही अपनी दुकान यहां उठा लाऊंगी।

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