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प्रेमचन्द की कहानियाँ 29

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9790
आईएसबीएन :9781613015278

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तीसवाँ भाग


पंडितजी ने सतृष्ण नेत्रों से देखा। विंध्येश्वरी के प्रति अब उनके मन में एक नया भाव अंकुरित हो रहा था। मंगला जब तक जीवित थी, वह उनसे पिता-पुत्री के भाव को सजग और पुष्ट कराती रहती थी। अब मंगला न थी। अतएव वह भाव दिन-दिन शिथिल होता जाता था। मंगला के सामने बिन्नी एक बालिका थी। मंगला की अनुपस्थिति में वह एक रूपवती युवती थी। लेकिन सरल-हृदया बिन्नी को इसकी रत्ती-भर भी खबर न थी कि भैया के भावों में क्या परिवर्तन हो रहा है। उसके लिए वह वही पिता के तुल्य भैया थे। वह पुरुषों के स्वभाव से अनभिज्ञ थी। नारी-चरित्र में अवस्था के साथ मातृत्व का भाव दृढ़ होता जाता है। यहाँ तक कि एक समय ऐसा आता है, जब नारी की दृष्टि में युवक मात्र पुत्र तुल्य हो जाते हैं। उसके मन में विषय-वासना का लेश भी नहीं रह जाता। किन्तु पुरुषों में यह अवस्था कभी नहीं आती ! उनकी कामेन्द्रियाँ क्रियाहीन भले ही हो जायँ, पर विषय-वासना संभवत: और भी बलवती हो जाती है। पुरुष वासनाओं से कभी मुक्त नहीं हो पाता, बल्कि ज्यों-ज्यों अवस्था ढलती है त्यों-त्यों ग्रीष्म-ऋतु के अंतिम काल की भाँति उसकी वासना की गरमी भी प्रचंड होती जाती है। वह तृप्ति के लिए नीच साधनों का सहारा लेने को भी प्रस्तुत हो जाता है। जवानी में मनुष्य इतना नहीं गिरता। उसके चरित्र में गर्व की मात्र अधिक रहती है, जो नीच साधनों से घृणा करता है। वह किसी के घर में घुसने के लिए जबरदस्ती कर सकता है, किन्तु परनाले के रास्ते नहीं जा सकता।

पंडितजी ने बिन्नी को सतृष्ण नेत्रों से देखा और फिर अपनी इस उच्छृंखलता पर लज्जित होकर आँखें नीची कर लीं ! बिन्नी इसका कुछ मतलब न समझ सकी।

पंडितजी बोले, 'तुम्हें देखकर मुझे मंगला की उस समय की याद आ रही है ज़ब वह विवाह के समय यहाँ आयी थी। बिलकुल ऐसी सूरत थी। यही गोरा रंग, यही प्रसन्न-मुख, यही कोमल गाल, ये ही लजीली आँखें। वह चित्र अभी तक मेरे हृदय-पट पर खिंचा हुआ है, कभी नहीं मिट सकता। ईश्वर ने तुम्हारे रूप में मेरी मंगला मुझे फिर दे दी।'

बिन्नी- आपके लिए क्या जलपान लाऊँ? '

पंडित ले आना, 'अभी बैठो, मैं बहुत दुखी हूँ। तुमने मेरे शोक को भुला दिया है। वास्तव में तुमने मुझे जिला लिया, नहीं तो मुझे आशा न थी कि मंगला के पीछे मैं जीवित रहूँगा। तुमने प्राणदान दिया। नहीं जानता तुम्हारे चले जाने पर मेरी क्या दशा होगी।'

बिन्नी- 'क़हाँ चले जाने के बाद? मैं तो कहीं नहीं जा रही हूँ।'

पंडित- 'क्यों, तुम्हारे विवाह की तिथि आ रही है। चली ही जाओगी।'

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