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प्रेमचन्द की कहानियाँ 30

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9791
आईएसबीएन :9781613015285

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसवाँ भाग


राणा बोले- ''प्रभा, मैं तुम्हारा अपराधी हूँ। मैं बलपूर्वक तुम्हें माता-पिता की गोद से छीन लाया, पर यदि मैं तुमसे कहूँ कि यह सब तुम्हारे प्रेम से विवश होकर मैंने किया तो तुम मन में हँसोगी और कहोगी कि यह निराले, अनूठे ढंग की प्रीति है, तथापि वास्तव में यही बात है। जबसे मैंने रणछोड़जी के मंदिर में तुमको देखा, तब से एक क्षण भी ऐसा नहीं बीता कि मैं तुम्हारी सुधि में विकल न रहा हूँ और तुम्हें अपनाने का अन्य कोई उपाय होता तो मैंने कदापि इस पाशविक ढंग से काम न लिया होता। मैंने रावसाहब की सेवा में बारंबार सँदेशे भेजे, पर उन्होंने हमेशा मेरी उपेक्षा की। अंत में जब तुम्हारे विवाह की अवधि आ गई और मैंने देखा कि एक ही दिन में तुम दूसरे की प्रेमपात्री हो जाओगी, तब तुम्हारा ध्यान करना भी मेरी आत्मा को दूषित करेगा, तो लाचार होकर मुझे यह अनीति करनी पड़ी। मैं मानता हूँ कि यह सर्वथा मेरी स्वार्थांधता है। मैंने अपने प्रेम के सामने तुम्हारे मनोगत भावों को कुछ न समझा, पर प्रेम स्वयं एक बढ़ी हुई खुदगरज़ी है, जब मनुष्य को अपने प्रियतम के सिवाय और कुछ नहीं पाता। मुझे पूरा विश्वास था कि मैं अपने विनीत भाव से और प्रेमानुराग और श्रद्धा से तुम को अपना लूँगा। प्रभा, प्यास से मरता हुआ मनुष्य यदि किसी गढ़े में मुँह डाल दे तो वह दंड का भागी नहीं है। मैं प्रेम का प्यासा हूँ। मीरा मेरी सहधर्मिणी है। उसका हृदय प्रेम का अगाध सागर है। उसका एक चुल्लू भी मुझे उन्मत्त करने के लिए काफी था, पर जिस हृदय में ईश्वर का वास हो, वहाँ मेरे लिए स्थान कहाँ? तुम शायद कहोगी कि यदि तुम्हारे सिर पर प्रेम का भूत सवार था तो क्या सारे राजपूताने में स्त्रियाँ न थीं। निस्संदेह राजपूताने में सुंदरता का अभाव नहीं है और न चित्तौड़ाधिपति की ओर से विवाह की बातचीत किसी के अनादर का कारण हो सकती है पर इसका जवाब तुम आप ही हो। इसका दोष तुम्हारे ही ऊपर है! राजस्थान में एक ही चित्तौड़ है! एक ही राणा!! और एक ही प्रभा!! संभव है मेरे भाग्य में प्रेमानंद भोगना न लिखा हो। यह मैं अपने कर्मलेख को मिटाने का थोड़ा-सा प्रयत्न कर रहा हूँ परंतु भाग्य के अधीन बैठे रहना पुरुषों का काम नहीं है। मुझे इसमें सफलता होगी या नहीं, इसका फ़ैसला तुम्हारे हाथ है।''

प्रभा की आँखें जमीन की तरफ़ थीं और मन फुदकनेवाली चिड़ियाँ की भाँति इधर-उधर उड़ता फिरता था। वह झालाबार को मार-काट से बचाने के लिए राणा के साथ आई थी। मगर राणा के प्रति उसके हृदय में क्रोध की तरंगें उठ रही थीं। उसने सोचा था कि राणा यहाँ आएँगे तो उन्हें राजपूत-कुलकलंक, अन्यायी, दुराचारी, दुरात्मा, कायर कहकर उनका गर्व चूर-चूर कर दूँगी। उसको विश्वास था कि यह अपमान राणा से न सहा जाएगा और वे मुझे बलात् अपने काबू में लाना चाहेंगे। इस अंतिम समय के लिए उसने अपने हृदय को खूब मज़बूत और अपनी कटार को खूब तेज कर रखा था। उसने निश्चय कर लिया था कि इसका एक वार राणा पर होगा, दूसरा अपने कलेजे पर और इस प्रकार यह पाप-कांड समाप्त हो जाएगा, लेकिन राणा की नम्रता, उनकी करुणात्मक विवेचना और उनके विनीत भाव ने प्रभा को शांत कर दिया। आग पानी से बुझ जाती है। राणा कुछ देर वहाँ बैठे रहे फिर उठकर चले गए।

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