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प्रेमचन्द की कहानियाँ 30

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9791
आईएसबीएन :9781613015285

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसवाँ भाग


एक दिन झुँझलाकर उसने राणा को बुला भेजा। राणा आए। उनका चेहरा उतरा था। वे कुछ चिंतित से थे। प्रभा कुछ कहना चाहती थी, पर राणा की सूरत देखकर उसे उन पर दया आ गई। राणा ने उसे बात करने का अवसर न देकर स्वयं कहना शुरू किया-

''प्रभा, तुमने मुझे आज बुलाया है। यह मेरा सौभाग्य है। तुमने मेरी सुधि तो ली। मगर यह मत समझो कि मैं मृदुवाणी सुनने की आस लेकर आया हूँ। नहीं, मैं जानता हूँ जिसके लिए तुमने मुझे बुलाया है। यह लो तुम्हारा अपराधी तुम्हारे सामने खड़ा है। उसे जो दंड चाहो दो। मुझे अब तक आने का साहस न हुआ। इसका कारण यही दंड-भय था। तुम क्षत्राणी हो और क्षत्राणियाँ क्षमा करना नहीं जानतीं। झालावार में जब तुम मेरे साथ आने पर स्वयं उद्यत हो गई तो मैंने उसी क्षण तुम्हारे जौहर परख लिए। मुझे मालूम हो गया कि तुम्हारा हृदय बल और विश्वास से भरा हुआ है और उसे काबू में लाना सहज नहीं। तुम नहीं जानती कि यह एक मास मैंने किस तरह से काटा है। तड़प-तड़पकर रहा हूँ पर जिस तरह शिकारी बफरी हुई सिंहनी के सम्मुख जाने से डरता है, वही दशा मेरी थी। मैं कई बार आया, पर यहाँ तुमको उदास त्यौरियाँ चढ़ाए बैठे देखा। मुझे अंदर पैर रखने का साहस न हुआ। मगर आज मैं बिना बुलाया मेहमान नहीं हूँ। तुमने मुझे बुलाया है और तुम्हें अपने मेहमान का स्वागत करना चाहिए। हृदय से न सही, जहाँ अग्नि प्रज्वलित हो, वहीं ठंडक कहाँ? बातों ही से सही। अपने भावों को दबाकर ही सही। मेहमान का स्वागत करो। संसार में शत्रु का भी आदर किया जाता है और मित्रों से भी अधिक।''

''प्रभा! एक क्षण के लिए क्रोध को शांत करो और मेरे अपराधों पर विचार करो। तुम मेरे ऊपर यही दोषारोपण कर सकती हो कि मैं तुम्हें माता-पिता की गोद से छीन लाया। तुम जानती हो, कृष्ण भगवान रुक्मिणी को हर लाए थे। राजपूतों में यह कोई नई बात नहीं है। तुम कहोगी, इससे झालावारवालों का अपमान हुआ, पर ऐसा कहना कदापि ठीक नहीं। झालावारवालों ने वही किया जो मर्दों का धर्म था। उनका पुरुषार्थ देखकर हम चकित हो गए। यदि वे कृतकार्य नहीं हुए तो यह उनका दोष नहीं है। वीरों की सदैव जीत नहीं होती। हम इसलिए सफल हुए कि हमारी संख्या अधिक थी और इस काम के लिए तैयार होकर गए थे। वे निश्शंक थे, इस कारण उनकी हार हुई। यदि हम वहाँ से शीघ्र ही प्राण बचाकर भाग न आते तो हमारी गत वही होती जो रावसाहब ने कही थी। एक भी चित्तौड़ी न बचता, लेकिन ईश्वर के लिए यह मत सोचो कि मैं अपने अपराध के दूषण को मिटाना चाहता हूँ। नहीं, मुझसे अपराध हुआ और मैं हृदय से उस पर लज्जित हूँ पर अब तो जो कुछ होना था हो चुका। अब इस बिगड़े हुए खेल को मैं तुम्हारे ऊपर छोड़ता हूँ। यदि मुझे तुम्हारे हृदय में कोई स्थान मिले तो मैं उसे स्वर्ग समझूँगा। डूबते हुए को तिनके का सहारा भी बहुत है। क्या यह संभव है?''

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