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प्रेमचन्द की कहानियाँ 30

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9791
आईएसबीएन :9781613015285

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसवाँ भाग


राजकुमार ने एक पग और आगे बढ़ाया और निर्भीकता से कहा- ''प्रभा, तुम मुझसे निठुरता करती हो।''

प्रभा ने धमकाकर कहा- ''तुम यहाँ ठहरोगे तो मैं शोर मचा दूँगी।''

राजकुमार ने उदंडता से उत्तर दिया, ''इसका मुझे भय नहीं। मैं अपनी जान हथेली पर रखकर आया हूँ। आज दो में से एक का अंत हो जाएगा। या तो राणा रहेंगे या मैं रहूँगा। तुम मेरे साथ चलोगी?''

प्रभा ने दृढ़ता से कहा- ''नहीं।''

राजकुमार व्यंग्य भाव से बोला- ''क्यों, क्या चित्तौड़ का जलवायु पसंद आ गया?''

प्रभा ने राजकुमार की ओर तिरस्कृत नेत्रों से देखकर कहा- ''संसार में अपनी सब आशाएँ पूरी नहीं होतीं। जिस तरह यहाँ मैं अपना जीवन काट रही हूँ वह मैं ही जानती हूँ किंतु लोक-निंदा भी तो कोई चीज़ है। संसार की दृष्टि में मैं चित्तौड़ की रानी हो चुकी। अब राणा जिस भाँति रखें उसी भाँति रहूँगी। मैं अंत समय तक उनसे घृणा करूँगी, जलूँगी, कुढूँगी। जब जलन न सही जाएगी, विष खा लूँगी, या छाती में कटार मारकर मर जाऊँगी, लेकिन इसी भवन में। इस घर से बाहर कदापि पैर न निकालूँगी।''

राजकुमार के मन में संदेह हुआ कि प्रभा पर राणा का वशीकरण मंत्र चल गया। यह मुझसे छल कर रही है। प्रेम की जगह ईर्ष्या पैदा हुई। वह उग्र भाव से बोला- ''और यदि मैं तुम्हें यहाँ से उठा ले जाऊँ?''

प्रभा के तेवर बदल गए। बोली- ''तो मैं वही करूँगी जो ऐसी अवस्था में क्षत्राणियाँ किया करती हैं। या तो अपने गले में छुरी मार लूँगी, या तुम्हारे गले में।''

राजकुमार एक पग और आगे बढ़ा और यह कटु वाक्य बोला- ''राणा के साथ तो तुम खुशी से चली आईं। उस समय यह छुरी कहाँ गई थी?''

प्रभा को यह शब्द शर-सा लगा। वह तिलमिलाकर बोली- ''उस समय इस छुरी के एक वार से खून की नदी बहने लगती। मैं नहीं चाहती थी कि मेरे कारण मेरे भाई बंधुओं की जान जाए। इसके सिवाय मैं कुँवारी थी। मुझे अपनी मर्यादा के भंग होने का कोई भय न था। मैंने पतिव्रत नहीं लिया था। कम-से-कम संसार मुझे ऐसा समझता था। मैं अपनी दृष्टि में अब भी वही हूँ किंतु संसार की दृष्टि में कुछ और हो गई हूँ। लोक-लाज ने मुझे राणा की आज्ञाकारिणी बना दिया है। पतिव्रत की बेड़ी जबरदस्ती मेरे पैरों में डाल दी गई है। अब इसी की रक्षा करना मेरा धर्म है। इसके विपरीत और कुछ करना क्षत्राणियों के नाम को कलंकित करना है। तुम मेरे घाव पर व्यर्थ नमक क्यों छिड़कते हो? यह कौन-सी भलमनसी है। मेरे भाग्य में जो कुछ बदा है वह भोग रही हूँ। मुझे भोगने दो और तुम से विनती करती हूँ कि शीघ्र ही यहाँ से चले जाओ।''

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