कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 30 प्रेमचन्द की कहानियाँ 30प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसवाँ भाग
'इसी बात पर बाईजी, जब मैं आपको आड़े हाथों लेती हूँ, तो आप बिगड़ने लगती हैं। पुरुष स्वाधीन हैं। वह दिल में समझता है कि मैं स्वाधीन हूँ। वह स्वाधीनता का स्वाँग नहीं भरता। स्त्री अपने दिल में समझती रहती है कि वह स्वाधीन नहीं है, इसलिए वह अपनी स्वाधीनता का ढोंग करती है। जो बलवान हैं, वे अकड़ते नहीं। जो दुर्बल हैं, वही अकड़ करती हैं। क्या आप उन्हें अपने आँसू पोंछने के लिए इतना अधिकार भी नहीं देना चाहती?'
'मैं तो कहती हूँ, स्त्री अपने को छिपाकर पुरुष को जितना नचा सकती हैं अपने को खोलकर नहीं नचा सकती।'
'स्त्री ही पुरुष के आकर्षण की फ्रिक़ क्यों करें? पुरुष क्यों स्त्री से पर्दा नहीं करता।'
'अब मुँह न खुलवाओ मीनू! इस छोकरी को जगाकर कह दो- जाकर घर में सोये। इतने आदमी आ-जा रहे हैं और यह निर्लज्जा टाँग फैलाये पड़ी है। यहाँ नींद कैसे आ गयी?'
'रात कितनी गर्मी थी बाईजी। ठंड़क पाकर बेचारी की आँखें लग गयी हैं।'
'रात-भर यहीं रही है, कुछ-कुछ बदती हैं।'
मीनू युवती के पास जाकर उसका हाथ पकड़कर हिलाती हैं- यहाँ क्यों सो रही हो देवीजी, इतना दिन चढ़ आया, उठकर घर जाओ।
युवती आँखें खोल देती हैं- ओ हो, इतना दिन चढ़ आया? क्या मैं सो गयी थी? मेरे सिर में चक्कर आ जाया करता हैं। मैंने समझा शायद हवा से कुछ लाभ हो। यहाँ आयी; पर ऐसा चक्कर आया कि मैं इस बेंच पर बैठ गयी, फिर मुझे होश न रहा। अब भी मैं खड़ी नहीं हो सकती। मालूम होता हैं, मैं गिर पड़ूँगी। बहुत दवा की; पर कोई फ़ायदा नहीं होता। आप डॉक्टर श्याम नाथ को आप जानती होंगी, वह मेरे सुसर हैं।
युवती ने आश्चर्य से कहा- 'अच्छा! वह तो अभी इधर ही से गये हैं।'
'सच! लेकिन मुझे पहचान कैसे सकते हैं? अभी मेरा गौना नहीं हुआ है।'
'तो क्या आप उसके लड़के बसंतलाल की धर्मपत्नी हैं?'
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