| कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 31 प्रेमचन्द की कहानियाँ 31प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग
दाई भी खड़ी हो गयी कि देखूँ क्या मामला है। तमाशा इतना मनोरंजक था कि उसे समय का बिलकुल ध्यान न रहा। यकायक जब नौ के घंटे की आवाज कान में आयी तो चौंक पड़ी और लपकी हुई घर की ओर चली। 
सुखदा भरी बैठी थी। दाई को देखते ही त्योरी बदल कर बोली- बाजार में खो गयी थी? 
दाई विनयपूर्ण भाव से बोली- एक जान-पहचान की महरी से भेंट हो गयी। वह बातें करने लगी। 
सुखदा इस जवाब से और भी चिढ़ कर बोली- यहाँ दफ्तर जाने को देर हो रही है और तुम्हें सैर-सपाटे की सूझती है। 
परंतु दाई ने इस समय दबने में ही कुशल समझी, बच्चे को गोद में लेने चली, पर सुखदा ने झिड़क कर कहा- रहने दो, तुम्हारे बिना वह व्याकुल नहीं हुआ जाता। 
दाई ने इस आज्ञा को मानना आवश्यक नहीं समझा। बहू जी का क्रोध ठंडा करने के लिए इससे उपयोगी और कोई उपाय न सूझा। उसने रुद्रमणि को इशारे से अपने पास बुलाया। वह दोनों हाथ फैलाये लड़खड़ाता हुआ उसकी ओर चला। दाई ने उसे गोद में उठा लिया और दरवाजे की तरफ चली। लेकिन सुखदा बाज की तरह झपटी और रुद्र को उसकी गोद से छीन कर बोली- तुम्हारी यह धूर्तता बहुत दिनों से देख रही हूँ। यह तमाशे किसी और को दिखाइयो। यहाँ जी भर गया। 
दाई रुद्र पर जान देती थी और समझती थी कि सुखदा इस बात को जानती है। उसकी समझ में सुखदा और उसके बीच यह ऐसा मजबूत संबंध था, जिसे साधारण झटके तोड़ न सकते थे। यही कारण था कि सुखदा के कटु वचनों को सुन कर भी उसे यह विश्वास न होता था कि मुझे निकालने पर प्रस्तुत है। सुखदा ने यह बातें कुछ ऐसी कठोरता से कहीं और रुद्र को ऐसी निर्दयता से छीन लिया कि दाई से सह्य न हो सका। बोली- बहू जी ! मुझसे कोई बड़ा अपराध तो नहीं हुआ, बहुत तो पाव घंटे की देर हुई होगी। इस पर आप इतना बिगड़ रही हैं तो साफ क्यों नहीं कह देतीं कि दूसरा दरवाजा देखो। नारायण ने पैदा किया है तो खाने को भी देगा। मजदूरी का अकाल थोड़े ही है। 
सुखदा ने कहा- तो यहाँ तुम्हारी परवाह ही कौन करता है? तुम्हारी जैसी लौंडिनें गली-गली ठोकरें खाती फिरती हैं। 
			
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