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प्रेमचन्द की कहानियाँ 31

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9792
आईएसबीएन :9781613015292

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग


मगर यह सब जानते और समझते हुए मैंने पारसाल होलियों में ससुराल जाने के लिए बड़ी-बड़ी तैयारियाँ कीं। रेशमी अचकन ज़िंदगी में कभी न पहनी थी, फ्रोक्स के बूटों का भी स्वप्न देखा करता था। अगर नक़द रुपए देने का प्रश्न होता, तो शायद यह स्वप्न ही रहता, पर एक दोस्त की कृपा से दोनों चीजें उधार मिल गईं। चमड़े का सूटकेस एक मित्र से माँग लाया। दरी फट गई थी और नई दरी उधार मिल भी सकती थी, लेकिन बिछावन ले जाने की मैंने जरूरत न समझी। अब केवल रिस्टवाच की और कमी थी। यों तो दोस्तों में कितनों ही के पास रिस्टवाच थी। मेरे सिवा ऐसे अभागे बहुत कम होंगे, जिनके पास रिस्टवाच न हो-लेकिन मैं सोने की घड़ी चाहता था और वह केवल दानू के पास थी। मगर दानू से मेरी बेतकल्लुफ़ी न थी। दानू रूखा आदमी था। मँगनी की चीजों का लेना और देना दोनों ही पाप समझता था। ईश्वर ने माना है, वह इसके सिद्धांत का पालन कर सकता है। मैं कैसे कर सकता हूँ। जानता था कि वइ साफ़ इनकार करेगा, पर दिल न माना। खुशामद के बल पर मैंने अपने जीवन में बड़े-बड़े काम कर दिखाए हैं, इसी खुशामद की बदौलत आज महीने में 30 रुपए फटकारता हूँ। एक हजार ग्रेजुएटों से कम उम्मीदवार न थे; लेकिन सब मुँह ताकते रह गए और बंदा मूछों पर ताव देता हुआ घर आया। जब इतना बड़ा पाला मार लिया, तो दो-चार दिन के लिए घड़ी माँग लाना कौन-सा बड़ा मुश्किल काम था।

शाम को जाने की तैयारी थी। प्रातःकाल दानू के पास पहुँचा और उनके छोटे बच्चे को, जो बैठक के सामने सहन में खेल रहा था गोद में उठाकर लगा भींच-भींच कर प्यार करने। दानू ने पहले तो मुझे आते देखकर जरा त्योरियाँ चढ़ाई थीं, लेकिन मेरा यह वात्सल्य देखकर कुछ नरम पड़े, उसके ओठों के किनारे जरा फैल गए। बोले- ''खेलने दो दुष्ट को, तुम्हारा कुरता मैला हुआ जाता है। मैं तो इसे कभी छूता भी नहीं।''

मैंने कृत्रिम तिरस्कार का भाव दिखाकर रहा- ''मेरा कुरता मैला हो रहा है न, आप इसकी क्यों फ़िक्र करते हैं। वाह! ऐसा फूल-सा बालक और उसकी यह क़दर। तुम जैसों को तो ईश्वर नाहक़ संतान देता है। तुम्हें भारी मालूम होता हो, तो लाओ मुझे दे दो।''

यह कहकर मैंनै बालक को कंधे पर बैठा लिया और सहन में कोई पंद्रह मिनट तक उचकता फिरा। बालक खिलखिलाता था और मुझे दम न लेने देता था, यहीं तक कि दानू ने उसे मेरे कंधे से उतारकर जमीन पर बैठा दिया और बोले- ''कुछ पान-पत्ता तो लाया नहीं, उलटे सवारी कर बैठा। जा, अम्माँ से पान बनवा ला।''

बालक मचल गया। मैंने उसे शांत करने के लिए दानू को हल्के हाथों दो-तीन धप जमाए और उनकी रिस्टवाच से सुसज्जित कलाई पकड़कर बोला- ''ले लो बेटा, इनकी घड़ी ले लो, यह बहुत मारा करते हैं तुम्हें। आप तो घड़ी लगाकर बैठे हैं और हमारे मुन्ने के पास घड़ी नहीं।''

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