कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 31 प्रेमचन्द की कहानियाँ 31प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग
''तो भाभी को लिवा लाए?''
''जी भाभी को लिवा लाता। अपना गुजर तो होता ही, नहीं, भाभी को लिवा लाता।''
''आखिर तुम इतना कमाते हो वह क्या करते हो?''
'कमाता क्या हूँ अपना सिर। 3० रुपए महीने का नौकर हूँ।''
''तो तीसो खर्च कर डालते हो?''
''क्या 30 रुपए मेरे लिए बहुत हैं?''
''जब तुम्हारी कुल आमदनी 3० रुपए है, तो यह सब अपने ऊपर खर्च करने का तुम्हें अधिकार नहीं है! बीवी कब तक मैके में पड़ी रहेगी?''
''जब तक और तरक्की नहीं होती, तब तक मजबूरी है। किस बिरते पर बुलाऊँ?''
''और तरक्की दो-चार साल न हो तो?''
''यह तो ईश्वर ही ने कहा है। इधर तो ऐसी कोई आशा नहीं है।''
''शाबाश! तब तो तुम्हारी पीठ ठोकनी चाहिए। और कुछ काम क्यों नहीं करते। सुबह को क्या करते हो।''
''सारा वक्त नहाने-धोने, खाने-पीने में निकल जाता है। फिर दोस्तों से मिलना-जुलना भी तो है।''
''तो भई, तुम्हारा रोग असाध्य है। ऐसे आदमी के साथ मुझे लेशमात्र भी सहानुभूति नहीं हो सकती। आपको मालूम है मेरी घड़ी 500 रुपए की थी। सारे रुपए आपको देने होंगे। आप अपने लिए 15 रुपए रखकर बाकी 15 रुपए महीना मेरे हवाले रखते जाइए। 3० महीने या ढाई साल में मेरे रुपए पट जाएँ, तो खूब जी खोलकर दोस्तों से मिलिएगा। समझ गए न। मैंने 5० रुपए छोड़ दिए हैं, इससे अधिक रियायत नहीं कर सकता।''
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