कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 31 प्रेमचन्द की कहानियाँ 31प्रेमचंद
|
4 पाठकों को प्रिय 224 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग
''क्या तुम्हारे घर के पास ही है? तब तो बड़ा मज़ा रहेगा।''
''हाँ, मेरे घर से मिला हुआ है, मगर बहुत सस्ता।''
दानू बाबू के द्वार पर दोनों ताँगे रुके। आदमियों ने दौड़कर असबाब उतारना शुरू किया। एक क्षण में दानू बाबू की देवीजी घर में से निकलकर ताँगे के पास आई और पत्नीजी को साथ ले गईं। मालूम होता था, यह सारी बातें पहले ही से सधी-बधी थी। मैंने कहा- ''तो यह कहो कि हम तुम्हारे बिन बुलाए मेहमान हैं।''
''अब तुम अपनी मरजी का कोई मकान ढूँढ लेना। दस-पाँच दिन तो यहाँ रहो।''
लेकिन मुझे यह जबरदस्ती की मेहमानी अच्छी न लगी। मैंने तीसरे ही दिन एक मकान तलाश कर लिया। बिदा होते समय दानू ने 1०० रुपए लाकर मेरे सामने रख दिए और कहा- ''यह तुम्हारी अमानत है। लेते जाओ।''
मैंने विस्मय से पूछा- ''मेरी अमानत कैसी?''
दानू ने कहा- '' 15 रुपए के हिसाब से 6 महीने के 9० रुपए हुए और 1० रुपए सूद।''
मुझे दानू की यह सज्जनता बोझ के समान लगी। बोला- 'तो तुम घड़ी ले लेना चाहते हो।'
''फिर घड़ी का जिक्र किया तुमने। उसका नाम मत लो।''
''तुम मुझे चारों ओर से दबाना चाहते हो।''
''हाँ, दबाना चाहता हूँ फिर? तुम्हें आदमी बना देना चाहता हूँ। नहीं, उम्र-भर तुम यहाँ होटल की रोटियाँ तोड़ते और तुम्हारी देवीजी वहाँ बैठी तुम्हारे नाम को रोतीं। कैसी शिक्षा दी है, इसका एहसान तो न मानोगे।''
''यों कहो, तो आप मेरे गुरु बने हुए थे।''
|