कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 31 प्रेमचन्द की कहानियाँ 31प्रेमचंद
|
4 पाठकों को प्रिय 224 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग
इंद्रमणि- वह तुम्हारे लिए चाहे विष हो, पर लड़के के लिए अमृत ही होगी।
सुखदा- मैं नहीं समझती कि ईश्वरेच्छा उसके अधीन है।
इंद्रमणि- यदि नहीं समझती हो और अब तक नहीं समझी, तो रोओगी। बच्चे से हाथ धोना पड़ेगा।
सुखदा- चुप भी रहो, क्या अशुभ मुँह से निकालते हो। यदि ऐसी ही जली-कटी सुनानी है, तो बाहर चले जाओ।
इंद्रमणि- तो मैं जाता हूँ। पर याद रखो, यह हत्या तुम्हारी ही गर्दन पर होगी। यदि लड़के को तंदुरुस्त देखना चाहती हो, तो उसी दाई के पास जाओ, उससे विनती और प्रार्थना करो, क्षमा माँगो। तुम्हारे बच्चे की जान उसी की दया के अधीन है।
सुखदा ने कुछ उत्तर नहीं दिया। उसकी आँखों से आँसू जारी थे।
इंद्रमणि ने पूछा- क्या मर्जी है, जाऊँ उसे बुला लाऊँ?
सुखदा- तुम क्यों जाओगे, मैं आप चली जाऊँगी।
इंद्रमणि- नहीं, क्षमा करो। मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं है। न जाने तुम्हारे जबान से क्या निकल पड़े कि जो वह आती भी तो न आवे।
सुखदा ने पति की ओर फिर तिरस्कार की दृष्टि से देखा और बोली- हाँ, और क्या, मुझे अपने बच्चे की बीमारी का शोक थोड़े ही है। मैंने लाज के मारे तुमसे कहा नहीं, पर मेरे हृदय में यह बात बार-बार उठी है। यदि मुझे दाई के मकान का पता मालूम होता, तो मैं कब की उसे मना लायी होती। वह मुझसे कितनी ही नाराज हो, पर रुद्र से उसे प्रेम था। मैं आज ही उसके पास जाऊँगी। तुम विनती करने को कहते हो, मैं उसके पैरों पड़ने के लिए तैयार हूँ। उसके पैरों को आँसुओं से भिगोऊँगी, और जिस तरह राजी होगी, राजी करूँगी।
|