कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 31 प्रेमचन्द की कहानियाँ 31प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग
माधवी ने कहा– किसका चित्र है, देखूं।
माधवी ने चित्र को ध्यानपूर्वक देखा। उसकी आंखों में आंसू आ गये।
विरजन– पहचान गयी?
माधवी- क्यों? यह स्वरूप तो कई बार स्वप्न में देख चुकी हूं? बदन से कांति बरस रही है।
विरजन– देखो वृतान्त भी लिखा है।
माधवी ने दूसरा पन्ना उल्टा तो ‘स्वामी बालाजी’ शीर्षक लेख मिला थोडी देर तक दोंनों तन्मय होकर यह लेख पढती रहीं, तब बातचीत होने लगी।
विरजन– मैं तो प्रथम ही जान गयी थी कि उन्होंने अवश्य सन्यास ले लिया होगा।
माधवी पृथ्वी की ओर देख रही थी, मुख से कुछ न बोली।
विरजन– तब में और अब में कितना अन्तर है। मुखमण्डल से कांति झलक रही है। तब ऐसे सुन्दर न थे।
माधवी– हूं।
विरजन– ईश्वर उनकी सहायता करे। बड़ी तपस्या की है। (नेत्रों में जल भरकर) कैसा संयोग है। हम और वे संग–संग खेले, संग–संग रहे, आज वे सन्यासी हैं और मैं वियोगिनी। न जाने उन्हें हम लोगों की कुछ सुध भी है या नहीं। जिसने सन्यास ले लिया, उसे किसी से क्या मतलब? जब चाची के पास पत्र न लिखा तो भला हमारी सुधि क्या होगी? माधवी बालकपन में वे कभी योगी–योगी खेलते तो मैं मिठाइयों की भिक्षा दिया करती थी। माधवी ने रोते हुए ‘न जाने कब दर्शन होंगें’ कहकर लज्जा से सिर झुका लिया।
विरजन– शीघ्र ही आयेंगे। प्राणनाथ ने यह लेख बहुत सुन्दर लिखा है।
माधवी– एक-एक शब्द से भक्ति टपकती है।
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