| कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 32 प्रेमचन्द की कहानियाँ 32प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बत्तीसवाँ भाग
उसके प्रेमियों में एक मि. प्रसाद था- बड़ा ही रूपवान और धुरन्धर विद्वान। एक कॉलेज में प्रोफेसर था। वह भी मुक्त-भोग का आदर्श का उपासक था और पद्मा उस पर फिदा थी। चाहती थी उसे बाँधकर रखे, सम्पूर्णतः अपना बना ले; लेकिन प्रसाद चंगुल में न आता था। 
सन्ध्या हो गयी थी। पद्मा सैर करने जा रही थी कि प्रसाद आ गये। सैर करना मुल्तवी हो गया। बातचीत में सैर से कहीं ज्यादा आनन्द था और पद्मा आज प्रसाद से कुछ दिल की बात कहने वाली थी। कई दिन के सोच-विचार के बाद उसने कह डालने का निश्चय किया। 
उसने प्रसाद की नशीली आँखों से आँखें मिलाकर कहा- तुम यहीं मेरे बँगले में आकर क्यों नहीं रहते? 
प्रसाद ने कुटिल-विनोद के साथ कहा- नतीजा यह होगा कि दो-चार महीने में यह मुलाकात बन्द हो जायेगी। 
'मेरी समझ में नहीं आया, तुम्हारा आशय क्या है।' 
'आशय वही है, जो मैं कह रहा हूँ।' 
'आखिर क्यों?' 
'मैं अपनी स्वाधीनता न खोना चाहूँगा, तुम अपनी स्वतन्त्रता न खोना चाहोगी। तुम्हारे पास तुम्हारे आशिक आयेंगे, मुझे जलन होगी। मेरे पास मेरी प्रेमिकाएँ आयेंगी, तुम्हें जलन होगी। मनमुटाव होगा, फिर वैमनस्य होगा और तुम मुझे घर से निकाल दोगी। घर तुम्हारा है ही! मुझे बुरा लगेगा ही, फिर यह मैत्री कैसे निभेगी?' 
दोनों कई मिनट तक मौन रहे। प्रसाद ने परिस्थिति को इतने स्पष्ट, बेलाग, लट्ठमार शब्दों में खोलकर रख दिया था कि कुछ कहने की जगह न मिलती थी। 
आखिर प्रसाद ही को नुकता सूझा। बोला- जब तब हम दोनों यह प्रतिज्ञा न कर लें कि आज से मैं तुम्हारा हूँ और तुम मेरी हो, तब तक एक साथ निर्वाह नहीं हो सकता! 
'तुम यह प्रतिज्ञा करोगे?' 
			
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