कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 32 प्रेमचन्द की कहानियाँ 32प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बत्तीसवाँ भाग
उसने सोचना शुरू किया, रुपये लाऊँ कहाँ से? अब तो लाला दाऊदयाल भी न देंगे। एक बार उनके पास जाकर देखूँ तो सही, कौन जाने, मेरी बिपत का हाल सुनकर उन्हें दया आ जाय। बड़े आदमी हैं, कृपादृष्टि हो गयी, तो सौ-दो-सौ उनके लिए कौन बड़ी बात है।
इस भाँति मन में सोच-विचार करता हुआ वह लाला दाऊदयाल के पास चला। रास्ते में एक-एक कदम मुश्किल से उठता था। कौन मुँह लेकर जाऊँ? अभी तीन ही दिन हुए हैं, साल-भर में पिछले रुपये अदा करने का वादा करके आया हूँ। अब जो 200 रु. और माँगूगा, तो वह क्या कहेंगे। मैं ही उनकी जगह पर होता तो कभी न देता। उन्हें जरूर संदेह होगा कि यह आदमी नीयत का बुरा है। कहीं दुत्कार दिया, घुड़कियाँ दीं, तो? पूछें, तेरे पास ऐसी कौन-सी बड़ी जायदाद है, जिस पर रुपये की थैली दे दूँ, तो क्या जवाब दूँगा? जो कुछ जायदाद है, वह यही दोनों हाथ हैं। उसके सिवा यहाँ क्या है? घर को कोई सेंत भी न पूछेगा। खेत हैं, तो जमींदार के, उन पर अपना कोई काबू ही नहीं। बेकार जा रहा हूँ, वहाँ धक्के खाकर निकलना पड़ेगा, रही-सही आबरू भी मिट्टी में मिल जायगी।
परन्तु इन निराशाजनक शंकाओं के होने पर भी वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा चला जाता था, जैसे कोई अनाथ विधवा थाने फरियाद करने जा रही हो।
लाला दाऊदयाल कचहरी से आकर अपने स्वभाव के अनुसार नौकरों पर बिगड़ रहे थे- द्वार पर पानी क्यों नहीं छिड़का, बरामदे में कुर्सियाँ क्यों नहीं निकाल रखीं? इतने में रहमान सामने जाकर खड़ा हो गया।
लाला साहब झल्लाये तो बैठे थे रुष्ट होकर बोले- तुम क्या करने आये हो जी? क्यों मेरे पीछे पड़े हो। मुझे इस वक्त बातचीत करने की फुरसत नहीं है।
रहमान कुछ न बोल सका। यह डाँट सुनकर इतना हताश हुआ कि उलटे पैरों लौट पड़ा। हुई न वही बात ! यही सुनने तो मैं आया था? मेरी अकल पर पत्थर पड़ गये थे!
दाऊदयाल को कुछ दया आ गयी। जब रहमान बरामदे के नीचे उतर गया, तो बुलाया, जरा नर्म होकर बोले- कैसे आये थे जी ! क्या कुछ काम था?
रहमान- नहीं सरकार, यों ही सलाम करने चला आया था।
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