कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 32 प्रेमचन्द की कहानियाँ 32प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बत्तीसवाँ भाग
बुद्धू- आप मुझे जान-बूझ कर जहर खाने को कहते हैं। मुझे मालूम न था कि मूठ के देवता इस बखत इतने गरम हैं। वह मेरे मन में बैठे कह रहे हैं, तुमने हमारा शिकार छीना तो हम तुम्हें निगल जायेंगे।
डॉक्टर- देवता को किसी तरह राजी कर लो।
बुद्धू- राजी करना बड़ा कठिन है, पाँच सौ रुपये दीजिए तो इसकी जान बचे। उतारने के लिए बड़े-बड़े जतन करने पड़ेंगे।
डॉक्टर- पाँच सौ रुपये दे दूँ तो इसकी जान बचा दोगे?
बुद्धू- हाँ, शर्त बद कर।
डॉक्टर साहब बिजली की तरह लपक कर अपने कमरे में आ गये और पाँच सौ रुपयों की थैली लाकर बुद्धू के सामने रख दी। बुद्धू ने विजय की दृष्टि से थैली को देखा। फिर जगिया का सर अपनी गोद में रखकर उस पर हाथ फेरने लगा। कुछ बुदबुदा कर छू-छू करता जाता था। एक क्षण में उसकी सूरत डरावनी हो गयी, लपटें-सी निकलने लगीं। बार-बार अँगड़ाइयाँ लेने लगा। इसी दशा में एक बेसुरा गाना आरम्भ किया, पर हाथ जगिया के सर पर ही था। अंत में कोई आध घंटा बीतने पर जगिया ने आँखें खोल दीं, जैसे बुझते हुए दीये में तेल पड़ जाय। धीरे-धीरे उसकी अवस्था सुधरने लगी। उधर कौवे की बोली सुनाई दी, जगिया एक अँगड़ाई ले कर उठ बैठी।
सात बजे थे जगिया मीठी नींद सो रही थी; उसकी आकृति निरोग थी, बुद्धू रुपयों की थैली ले कर अभी गया था। डॉक्टर साहब की माँ ने कहा- बात-की-बात में पाँच सौ रुपये मार ले गया।
डॉक्टर- यह क्यों नहीं कहती कि एक मुरदे को जिला गया। क्या उसके प्राण का मूल्य इतना भी नहीं है।
माँ- देखो, आले पर पाँच सौ रुपये हैं या नहीं?
डॉक्टर- नहीं, उन रुपयों में हाथ मत लगाना, उन्हें वहीं पड़े रहने दो। उसने तीरथ करने के वास्ते लिये थे, वह उसी काम में लगेंगे।
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