कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 32 प्रेमचन्द की कहानियाँ 32प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बत्तीसवाँ भाग
चोखेलाल- 'आप लोगों को मुझसे यह कहने की जरूरत नहीं। मैं अपना धर्म समझता हूँ। रामनाथजी मेरे भी मित्र थे। मुझे यह भी मालूम है कि इस मकान के बनवाने में एक लाख से कम एक पाई भी नहीं लगे, लेकिन बाजार का हाल क्या आप लोगों से छिपा है। इस समय इसके 25 हजार से बेसी नहीं मिल सकते। सुभीते से तो कोई ग्राहक से दस-पाँच हजार और मिल जायँगे; लेकिन इस समय तो कोई ग्राहक भी मुश्किल से मिलेंगे। लो दही और लाव दही की बात है।'
धनीराम- '25 हजार रु. तो बहुत कम है भाई, और न सही 30 हजार रु. तो करा दो।'
चोखेलाल- '30 क्या मैं तो 40 करा दूँ, पर कोई ग्राहक तो मिले। आप लोग कहते हैं तो मैं 30 हजार रु. की बातचीत करूँगा।'
धनीराम- 'ज़ब तीस हजार में ही देना है तो कुबेरदासजी ही क्यों न ले लें। इतना सस्ता माल दूसरों को क्यों दिया जाय।'
कुबेरदास- 'आप सब लोगों की राय हो, तो ऐसा ही कर लिया जाय। धनीराम ने 'हाँ, हाँ' कहकर हामी भरी। भीमचन्द मन में ऐंठकर रह गये। यह सौदा भी पक्का हो गया। आज ही वकील ने बैनामा लिखा। तुरन्त रजिस्ट्री भी हो गयी। सुशीला के सामने बैनामा लाया गया, तो उसने एक ठण्डी साँस ली और सजल नेत्रों से उस पर हस्ताक्षर कर दिये। अब उसे उसके सिवा और कहीं शरण नहीं है। बेवफा मित्र की भाँति यह घर भी सुख के दिनों में साथ देकर दु:ख के दिनों में उसका साथ छोड़ रहा है।
पंच लोग सुशीला के आँगन में बैठे बिरादरी के रुक्के लिख रहे हैं और अनाथ विधवा ऊपर झरोखे पर बैठी भाग्य को रो रही है। इधर रुक्का तैयार हुआ, उधर विधवा की आँखों से आँसू की बूँदें निकलकर रुक्के पर गिर पड़ीं। धनीराम ने ऊपर देखकर कहा, 'पानी का छींटा कहाँ से आया?'
सन्तलाल -'बाई बैठी रो रही है। उसने रुक्के पर अपने रक्त के आँसुओं की मुहर लगा दी है।'
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