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			 कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 33 प्रेमचन्द की कहानियाँ 33प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतीसवाँ भाग
ईश्वरचंद्र- मैं चाहता हूँ कि कृष्णचन्द्र को अपने काम में शरीक कर लूँ। अब तो वह एम.ए. भी हो गया। इस पेशे में उसे रुचि भी है। मालूम होता है, ईश्वर ने उसे इसी काम के लिए बनाया है।
मानकी ने अवहेलना-भाव से कहा- क्या अपने साथ उसे भी ले डूबने का इरादा है? कोई घर की सेवा करने वाला भी चाहिए कि सब देश की ही सेवा करें। 
ईश्वरचंद्र- कृष्णचन्द्र यहाँ बुरा न रहेगा। 
मानकी- क्षमा कीजिएगा। बाज आयी। वह कोई दूसरा काम करेगा, जहाँ चार पैसे मिलें। यह घर-फूँक काम आप ही को मुबारक रहे।
ईश्वरचंद्र- वकालत में भेजोगी, पर देख लेना पछताना पड़ेगा। कृष्णचंद्र उस पेशे के लिए सर्वथा अयोग्य है।
मानकी- वह चाहे मजूरी करे, पर इस काम में न डालूँगी। 
ईश्वरचंद्र- तुमने मुझे देखकर समझ लिया कि इस काम में घाटा ही घाटा है। पर इसी देश में ऐसे भाग्यवान् लोग मौजूद हैं, जो पत्रों की बदौलत धन और कीर्ति से मालामाल हो रहे हैं। 
मानकी- इस काम में अगर कंचन भी बरसे, तो मैं कृष्ण को न आने दूँ। सारा जीवन वैराग्य में कट गया। अब कुछ दिन भोग भी करना चाहती हूँ। यह जाति का सच्चा सेवक अंत को जातीय कष्टों के साथ रोग के कष्ट को न सह सका। इस वार्त्तालाप के बाद मुश्किल से नौ महीने गुजरे थे कि ईश्वरचंद्र ने संसार से प्रस्थान किया। उनका सारा जीवन सत्य के पोषण, न्याय की रक्षा और अन्याय के विरोध में कटा था। अपने सिद्धांतों के पालन में उन्हें कितनी ही बार अधिकारियों की तीव्र दृष्टि का भोजन बनना पड़ा था, कितनी ही बार जनता का अविश्वास, यहाँ तक कि मित्रों की अवहेलना भी सहनी पड़ी थी; पर उन्होंने अपनी आत्मा का कभी खून नहीं किया। आत्मा के गौरव के सामने धन को कुछ न समझा।
			
						
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