कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 33 प्रेमचन्द की कहानियाँ 33प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतीसवाँ भाग
साहब ने उस आदमी की ओर लाल-लाल आँखों से देखकर कहा, 'तुम झूठ बोलता है, बिलकुल झूठ बोलता है।'
मैंने डाँटा- 'अभी तुम्हारी हेकड़ी कम नहीं हुई, आऊँ फिर और दूं एक सोंटा कसके?'
साहब ने घिघियाकर कहा, 'अरे नहीं बाबा, सच बोलता है, सच बोलता है। अब तो खुश हुआ।'
दूसरा दर्शक बोला, 'अभी जो चाहें कह दें, लेकिन ज्यों ही गाड़ी पर बैठे, फिर वही हरकत शुरू कर देंगे। गाड़ी पर बैठते ही सब अपने को नवाब का नाती समझने लगते हैं।'
दूसरे महाशय बोले, 'इससे कहिए थूककर चाटे।'
तीसरे सज्जन ने कहा, 'नहीं, कान पकड़कर उठाइए-बैठाइए।'
चौथा बोला, 'अरे ड्राइवर को भी। ये सब और बदमाश होते हैं। मालदार आदमी घमण्ड करे, तो एक बात है, तुम किस बात पर अकड़ते हो। चक्कर हाथ में लिया और आँखों पर परदा पड़ा।'
मैंने यह प्रस्ताव स्वीकार किया। 'ड्राइवर और मालिक दोनों ही को कान पकड़कर उठाना-बैठाना चाहिए और मेम साहब गिनें। सुनो मेम साहब, तुमको गिनना होगा। पूरी सौ बैठकें। एक भी कम नहीं, ज्यादा जितनी चाहें, हो जायँ। दो आदमियों ने साहब का हाथ पकड़कर उठाया, दो ने ड्राइवर महोदय का। ड्राइवर बेचारे की टाँग में चोट थी, फिर भी वह बैठकें लगाने लगा। साहब की अकड़ अभी काफी थी। आप लेट गये और ऊल-जलूल बकने लगे। मैं उस समय रुद्र बना हुआ था। दिल में ठान लिया था कि इससे बिना सौ बैठकें लगवाये न छोङूँगा। चार आदमियों को हुक्म दिया कि गाड़ी को ढकेलकर सड़क के नीचे गिरा दो।
हुक्म की देर थी। चार की जगह पचास आदमी लिपट गये और गाड़ी को ढकेलने लगे। वह सड़क बहुत ऊँची थी। दोनों तरफ की जमीन नीची। गाड़ी नीचे गिरती और टूट-टाटकर ढेर हो जाती। गाड़ी सड़क के किनारे तक पहुँच चुकी थी, कि साहब काँखकर उठ खड़े हुए और बोले बाबा, गाड़ी को मत तोड़ो, हम उठे-बैठेगा।
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