कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 33 प्रेमचन्द की कहानियाँ 33प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतीसवाँ भाग
पण्डित- भूलकर भी नहीं सरकार। हाय मर गया!
दूसरा- आज ही लखनऊ से रफरैट हो जाओ नहीं तो बुरा होगा।
पण्डित- सरकार मैं आज ही चला जाऊंगा। जनेऊ की शपथ खाकर कहता हूं। आप यहां मेरी सूरत न देखेंगे।
तीसरा- अच्छा भाई, सब कोई इसे पांच-पांच लातें लगाकर छोड़ दो।
पण्डित- अरे सरकार, मर जाऊंगा, दया करो।
चौथा- तुम जैसे पाखंडियों का मर जाना ही अच्छा है। हां तो शुरू हो। पंचलत्ती पड़ने लगी, धमाधम की आवाजें आने लगी। मालूम होता था नगाड़े पर चोट पड़ रही है। हर धमाके के बाद एक बार हाय की आवाज निकल आती थी, मानों उसकी प्रतिध्वनी हो। पंचलत्ती पूजा समाप्त हो जाने पर लोगों ने मोटेराम जी को घसीटकर बाहर निकाला और मोटर पर बैठाकर घर भेज दिया, चलते-चलते चेतावनी दे दी, कि प्रात:काल से पहले भाग खड़े होना, नहीं तो और ही इलाज किया जाएगा।
मोटेराम जी लंगड़ाते, कराहते, लकड़ी टेकते घर में गए और धम से गिर पड़े चारपाई पर।
स्त्री ने घबराकर पूछा- कैसा जी है? अरे तुम्हारा क्या हाल है? हाय-हाय यह तुम्हारा चेहरा कैसा हो गया!
मोटे- हाय भगवान, मर गया।
स्त्री- कहां दर्द है? इसी मारे कहती थी, बहुत रबड़ी न खाओ। लवणभास्कर ले आऊं?
मोटे- हाय, दुष्टों ने मार डाला। उसी चाण्डालिनी के कारण मेरी दुर्गति हुई। मारते-मारते सबों ने भुरकुस निकाल दिया।
स्त्री- तो यह कहो कि पिटकर आये हो। हां, पिटे हो। अच्छा हुआ। हो तुम लातों ही के देवता। कहती थी कि रानी के यहां मत आया-जाया करो। मगर तुम कब सुनते थे।
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