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प्रेमचन्द की कहानियाँ 33

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9794
आईएसबीएन :9781613015315

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतीसवाँ भाग


सेठ- ''मेरे मन में तो मोटेराम जँचे हुए हें। इस तरह तो और भी कई पंडित हैं, पर मोटेराम की बात और है।''

सेठानी- ''तो उनके लिए रुपए का क्या काम? भर-पेट लड्डू खिला देना।''

सेठ- ''तो क्या लड्डू चार रुपए से कम खाएँगे? इस तरह तो एक ही रुपया में पिंड छूट जाएगा।''

राय पक्की हो गई। सेठानी ने बालक को नहलाया, कपड़े पहनाए, हाथों में सोने के लड़े, कानों में बालियाँ, पाँवों में चाँदी के कड़े, माथे पर काजल का टीका लगा दिया। उधर सेठ जी ने कुरता डाटा, पगड़ी बाँधी और सूखे हुए जूतों को पानी से नर्म करके पाँवों को उनमें ठूँस दिया। बालक ने उन्हें जूते पहनते देखा तो मचल पड़ा कि मुझे भी जूते ला दो। एक रुपए का प्रश्न तो सामने था ही, उस पर यह नई जिद। सेठजी को क्रोध आ गया। बालक को तमाचे लगाए और घसीटता हुआ गुरु-धाम की ओर ले चला।

देवताओं की उपासना कभी निष्फल नहीं जाती, फिर पं. मोटेरामजी की मनोकामना क्यों न पूरी होती। उनकी पहुँच तो देवताओं तक ही नहीं, उनकी देवियों तक थी। कभी साइत विचारने, कभी-कभी वर्ष-फल वनाने के लिए, कभी जायचों के मिलाने के लिए, कभी दुर्गा-पाठ करने के लिए घरों में उनका बुलावा होता था और यह तो हम नहीं कह सकते कि पं. जी रसिक जीव थे या नहीं, उनकी स्थूलता रसिकता के भयानुकूल न थी, पर सोना देवी ऐसे अवसरों पर बहुत प्रसन्न न होती थीं और पं. जी को चेतावनी दे दिया करती थीं कि जरा हाथ-पाँव सँभालते रहना। पं. जी इतने मधुरभाषी, इतने प्रसन्नमुख थे, और रमणियों को प्रसन्न करने के लिए इतने मंत्र जानते थे कि उनके सामने और किसी पंडित की दाल न गलती थी। इन्हीं कारणों से पंडितजी एक पाठशाला में 30 रु. मासिक के अध्यापक हो गए थे।

लेकिन अध्यापक हो जाने पर मोटेरामजी को एक नया अनुभव हुआ। अब छोटे-मोटे नेवतो को स्वीकार करते उन्हें संकोच होता था। ज्योंही वह शाला पहुँचते, उन्हें सारे शहर की रिपोर्ट पता लगती- कहाँ विद्यारंभ है, कहाँ श्राद्ध है, कहाँ विवाह है। पंडित जी अपने सुपुत्रों को प्रतिनिधि बनाकर मन को समझा लेते थे। यह सम्मान और यह पद उन्हें बड़े महँगे दामों में मिला था। इसलिए वह कभी-कभी स्त्री से झुँझलाकर कहते- ''मैं यह नौकरी छोड़ दूँगा। यह नौकरी है या कठोर-दंड?'' इस तरह रोटी-दाल खाना पड़ा तो दो-चार साल में प्राण-पखेरू ही उड़ जाएँगे। अभी से कुछ झटक चला हूँ।''

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