कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 33 प्रेमचन्द की कहानियाँ 33प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतीसवाँ भाग
चिंता.- ''अहोभाग्य! धन्य हैं, धन्य हैं! ऐसे ही पुण्यात्माओं से तो सृष्टि थमी हुई है। नहीं तो यह पृथ्वी कब की रसातल चली गई होती। तो सेठजी, कितने ब्राह्मणों को जिमाइएगा?''
मोटे.- ''सेठजी से आप व्यर्थ यह प्रश्न करते हैं। मुझसे संभाषण कीजिए, द्वादश की संख्या बहुत ही मंगलमयी है।''
चिंता.- ''समझ गए सेठजी! बारह महात्माओं के जिमाने का प्रबंध कीजिए।''
मोटे.- ''आप सामग्री का अनुमान कीजिए, सेठजी लक्ष्मी-पुत्र हैं। कोई दस सेर अमिर्ती पर्याप्त होंगी।''
चिंता.- ''दस सेर! इतनी तो मेरे को अकेले...।''
मोटे.- ''मित्रवर, मिथ्या-भाषण वर्जित है। अच्छा कलाकंद कितना चाहिए?''
चिंता.- ''मुझे तो बोलने ही नहीं देते!''
मोटे.- ''नहीं-नहीं! इस विपय में आप अपने विचार संपूर्ण स्वाधीनता से प्रकट कर सकते हैं।''
चिंता.- ''मन भर कलाकंद रखिए।''
मोटे.(हँसकर)- ''नहीं-नहीं, हमें अपने यजमान पर इतना गुरुभार न डालना चाहिए। दस सेर कलाकंद भी रख लीजिए।''
चिंता.- ''तो फिर तुम मेरे से क्यों पूछते हो? न मालूम तुम्हारा क्या स्वभाव है कि जब कोई आखेट फँसता है, तो तुम उसे...।''
मोटे.- ''व्यर्थ प्रज्वलित न हो मित्रवर! ऐसे दुष्कर कार्यों का संपादन करने के लिए बड़े अनुभव की आवश्यकता है। मोतीचूर के लड्डू कितने हों?''
चिंता.- ''मैं कुछ नहीं जानता।''
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