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प्रेमचन्द की कहानियाँ 33

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9794
आईएसबीएन :9781613015315

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतीसवाँ भाग


ईश्वरचंद्र- पहले तो मैं यही मानता कि वकीलों की कमाई हलाल है, और मान भी लूँ, तो किसी तरह यह नहीं मान सकता कि सभी वकील फूलों की सेज पर सोते हैं। अपना-अपना भाग्य सभी जगह है। कितने ही वकील हैं, जो झूठी गवाहियाँ देकर पेट पालते हैं। इस देश में समाचार-पत्रों का प्रचार अभी बहुत कम है, इसी कारण पत्र-संचालकों की आर्थिक दशा अच्छी नहीं है। योरप और अमेरिका में पत्र चलाकर लोग करोड़पति हो गए हैं। इस समय संसार के सभी समुन्नत देशों के सूत्रधार या तो समाचार-पत्रों के संपादक और लेखक हैं, या पत्रों के स्वामी। ऐसे कितने ही अरबपति हैं, जिन्होंने अपनी सम्पति की नींव पत्रों पर ही खड़ी की थी...

ईश्वरचंद्र सिद्ध करना चाहते थे कि धन, ख्याति और सम्मान प्राप्त करने का पत्र-संचालन से उत्तम और कोई साधन नहीं; और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसी जीवन में सत्य और न्याय की रक्षा करने के सच्चे अवसर मिलते हैं। परंतु मानकी पर इस वक्तृता का जरा भी असर न हुआ। स्थूल-दृष्टि को दूर की चीजें नहीं दिखाई देतीं। मानकी के सामने सफल सम्पादक का कोई उदाहरण न था।

सोलह वर्ष गुजर गए। ईश्वरचंद्र ने सम्पादकीय जगत में खूब नाम पैदा किया, जातीय आंदोलनों में अग्रसर हुए, पुस्तकें लिखीं एक दैनिक पत्र निकाला, अधिकारियों के भी सम्मान-पात्र हुए। बड़ा लड़का बी.ए. में जा पहुँचा, छोटे लड़के नीचे के दरजों में थे। एक लड़की का विवाह भी एक धन सम्पन्न कुल में किया! विदित यही होता था कि उनका जीवन बड़ा ही सुखमय है। मगर उनकी आर्थिक दशा अब भी संतोषजनक न थी। खर्च आमदनी से बढ़ा हुआ था। घर की कई हजार की जायदाद हाथ से निकल गई, इस पर भी बैंक का कुछ-न-कुछ देना सिर पर सवार रहता था। बाजार में भी उनकी साख न थी। कभी-कभी तो यहां तक नौबत आ जाती कि उन्हें बाजार का रास्ता छोड़ना पड़ता अब वह अक्सर अपनी युवावस्था की अदूरदर्शिता पर अफसोस करते थे, जातीय सेवा का भाव उनके हृदय में तरंगें मारता था, लेकिन काम तो वह करते थे और यश वकीलों और सेठों के हिस्सों में आ जाता था। उनकी गिनती अभी तक छुटभैयों में थी। यद्यपि सारा नगर जानता था कि यहाँ के सार्वजनिक जीवन के प्राण वही हैं, पर उनका यथार्थ सम्मान न होता था। इन्हीं कारणों से ईश्वरचंद्र को अब सम्पादन कार्य से अरुचि होती थी। दिनों-दिन उनका उत्साह क्षीण होता जाता था, लेकिन इस जाल से निकलने का कोई उपाय न सूझता था। उनकी रचना में अब सजीवता न थी, न लेखनी में शक्ति। उनके पत्र और पत्रिका, दोनों ही से उदासीनता का भाव झलकता था। उन्होंने सारा भार सहायकों पर छोड़ दिया था, खुद बहुत कम काम करते थे। हाँ दोनों पत्रों की जड़ जम चुकी थी, इसलिए ग्राहक-संख्या कम न होने पाती थी। वे अपने नाम पर चलते थे।

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