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प्रेमचन्द की कहानियाँ 33

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9794
आईएसबीएन :9781613015315

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतीसवाँ भाग


इस शोक-समाचार के फैलते ही सारे शहर में कुहराम मच गया। बाजार बन्द हो गए, शोक के जलसे होने लगे; सहयोगी पत्रों ने प्रतिद्वंद्विता के भाव को त्याग दिया, चारों ओर से एक ध्वनि आती थी कि देश से एक स्वतंत्र, सत्यवादी और विचारशील सम्पादक तथा एक निर्भीक, त्यागी, देशभक्त उठ गया, और उसका स्थान चिरकाल तक खाली रहेगा। ईश्वरचंद्र इतने बहुजनप्रिय हैं, इसका उनके घरवालों को ध्यान भी न था। उनका शव निकला, तो सारा शहर अर्थी के साथ था। उनके स्मारक बनने लगे। कहीं छात्र-वृत्तियाँ दी गईं, कहीं उनके चित्र बनवाए गए, पर सबसे अधिक महत्वशाली वह मूर्ति थी, जो श्रमजीवियों की ओर से उनकी स्मृति में प्रतिष्ठित हुई थी।

मानकी को अपने पति देव का लोक-सम्मान देखकर सुखमय कुतूहल होता था।
उसे अब खेद होता था कि मैंने उनके दिव्य गुणों को न पहचाना, उनके पवित्र भावों और उच्च विचारों की कदर न की। सारा नगर उनके लिए शोक मना रहा है। उनकी लेखनी ने अवश्य इनके ऐसे उपकार किए है, जिन्हें ये भूल नहीं सकते; और मैं अंत तक उनके मार्ग का कंटक बनी रही, सदैव तृष्णावश उनका दिल दुखाती रही। उन्होंने मुझे सोने में मढ़ दिया होता, एक भव्य भवन बनवाया होता, या कोई जायदाद पैदा कर ली होती, तो मैं खुश होती, अपना धन्य भाग्य समझती।

लेकिन तब देश में कौन उनके लिए आँसू बहाता, कौन उनका यश गाता? यहीं एक-से-एक धनिक पुरुष पड़े हैं। वे दुनिया से चले जाते हैं, और किसी को खबर भी नहीं होती। सुनती हूँ पतिदेव के नाम से छात्रों को वृत्ति दी जायगी। जो लड़के वृत्ति पाकर विद्या-लाभ करेंगे, वे मरते दम तक उनकी आत्मा को आशीर्वाद देंगे। शोक! मैंने उनके आत्मत्याग का मर्म न जाना। स्वार्थ ने मेरी आँखों पर परदा डाल दिया था।

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