लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9795
आईएसबीएन :9781613015322

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

428 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग


सहसा रसिकलाल पर मेरी निगाह पड़ गई। रंगीन कपड़ों का एक गट्ठर लिए अंदर से आए थे। न आँखों में आँसू न मुख पर वेदना, न माथे पर शिकन। वही बाँकी टोपी थी, वही रेशमी कुर्ता, वही महीन तंजेब की धोती। सब रो रहे थे, कोई आँसुओं के वेग को रोके हुए था, कोई शोक से विह्वल! ये बाहर के आदमी थे। कोई मित्र था, कोई बंधु और जो मरने वाले का बाप था, वह इन डगमगाने वाली नौकाओं और जहाजों के बीच में स्तंभ की भाँति खड़ा था। मैं दौड़कर उनके गले से लिपटकर रोने लगा। वह पानी की बूँद, जो पत्ते पर रुकी हुई थी, ज़रा-सी हवा पाकर हुलक पड़ी।

रसिकलाल ने मुझे गले से लगाते हुए कहा, ''आप कब आए? क्या अभी चले आ रहे हैं? वाह, मुझे खबर ही न हुई। शादी की तैयारियों में ऐसा फँसा कि मेहमानों की खातिरदारी भी न कर सका। चलकर कपड़े उतारिए, मुँह-हाथ धोइए। अभी बारात में चलना पड़ेगा। पूरी तैयारी के साथ चलेंगे। बैण्ड, बीन, ताशा, शहनाई, नगाडा, ढफली सभी कुछ साथ होंगे। कोतल घोड़े, हाथी, सवारियाँ सब कुछ मँगवाई हैं। आतिशबाज़ी, फूलों के तख्त, खूब धूम से चलेंगे। जेठे लड़के का ब्याह है, खूब दिल खोलकर करेंगे। गंगा के तट पर जनवासा होगा।''

इन शब्दों मैं शोक की कितनी भयंकर, कितनी अथाह वेदना थी! एक कुहराम मच गया।

रसिकलाल ने लाश के सिर पर बेलों का मौर पहनाकर कहा, ''क्या रोते हो भाइयो! यह कोई नई बात नहीं हुई है। रोज ही तो यह तमाशा देखते हैं, कभी अपने घर में, कभी दूसरे के घर में। रोज ही तो रोते हो, कभी अपने दुःख से, कभी पराए दुःख से। कौन तुम्हारे रोने की परवाह करता है, कौन तुम्हारे आँसू पोंछता है, कौन तुम्हारी चीत्कार सुनता है? तुम रोए जाओ, वह अपना काम किए जाएगा। फिर रोकर क्यों. अपनी दुर्बलता दिखाते हो? उसकी चोटों को छाती पर लो और हँसकर दिखा दो तुम ऐसी चोटों की परवाह नहीं करते। उससे कहो, तेरे अस्त्रालय में जो सवसे घातक अस्त्र हो वह निकाल ला। यह क्या सुइयाँ-सी चुभोता है? पर हमारी कोई दलील नहीं सुनता। न सुने! हम भी अपनी अकड़ न छोड़ेंगे। उसी धूम-धाम से बारात-निकालेंगे, खुशियाँ मनाएँगे।''

रसिकलाल रोते तो और लोग भी उन्हें समझाते। इस विद्रोह-भरी ललकार ने सबको स्तंभित कर दिया। समझाता कौन? हमें वह ललकार विक्षिप्त वेदना-सी जान पड़ी जो आँसुओं से कहीं मर्मांतक थी। चिनगारी के स्पर्श से आबले पड़ जाते हैं। दहकती हुई आग में पाँव पड़ जाए तो भुन जाएगा, आबले न पड़ेंगे। रसिकलाल की वेदना वही दहकती हुई आग थी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book