लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9795
आईएसबीएन :9781613015322

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

428 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग


गाँव में गया और निगाहें बालपन के साथियों को खोजने लगीं; किन्तु शोक! वे सब के सब मृत्यु के ग्रास हो चुके थे। मेरा घर–मेरा टूटा-फूटा झोपड़ा–जिसकी गोद में मैं बरसों खेला था, जहाँ बचपन और बेफ्रिकी के आनंद लूटे थे, और जिनका चित्र अभी तक मेरी आँखों में फिर रहा था, वही मेरा प्यारा घर अब मिट्टी का ढेर हो गया था।

यह स्थान गैर-आबाद न था। सैकड़ों आदमी चलते-फिरते नजर आते थे, जो अदालत-कचहरी और थाना-पुलिस की बातें कर रहे थे, उनके मुखों से चिंता, निर्जीवता और उदासी प्रदर्शित होती थी। और वे सब सांसारिक चिंताओं से व्यथित मालूम होते थे। मेरे साथियों के समान हृष्ट-पुष्ट, बलवान, लाल चेहरे वाले नवयुवक कहीं न दीख पड़ते थे। उस अखाड़े के स्थान पर जिसकी जड़ मेरे हाथों ने डाली थी, अब एक टूटा-फूटा स्कूल था। उसमें दुर्बल तथा कांतिहीन, रोगियों की-सी सूरत वाले बालक फटे कपड़े पहिने बैठे ऊँघ रहे थे। उनको देखकर सहसा मेरे मुख से निकल पड़ा– कि नहीं-नहीं, यह मेरा प्यारा भारतवर्ष नहीं है। यह देश देखने मैं इतनी दूर से नहीं आया हूँ–यह मेरा प्यारा भारतवर्ष नहीं है।’

बरगद के पेड़ की ओर मैं दौड़ा, जिसकी सुहावनी छाया में मैंने बचपन के आनंद उड़ाये थे, जो हमारे छुटपन का क्रीड़ास्थल और युवावस्था का सुखप्रद कुंज था। आह! इस प्यारे बरगद को देखते ही हृदय पर एक बड़ा आघात पहुँचा और दिल में महान् शोक उत्पन्न हुआ। उसे देखकर ऐसी-ऐसी दु:खदायक तथा हृदय-विदारक स्मृतियाँ ताजी हो गईं कि घण्टों पृथ्वी पर बैठे-बैठे मैं आँसू बहाता रहा। हाँ! यही बरगद है, जिसकी डालों पर चढ़कर मैं फुनगियों तक पहुँचता था, जिसकी जटाएँ हमारा झूला थीं और जिसके फल हमें सारे संसार की मिठाइयों से अधिक स्वादिष्ट मालूम होते थे। मेरे गले में बाहें डालकर खेलने वाले लँगोटिए यार, जो कभी रूठते थे, कभी मनाते थे, कहाँ गये? हाय,मैं बिना घर-बार का मुसाफिर अब क्या अकेला हूँ? क्या मेरा कोई भी साथी नहीं? इस बरगद के निकट अब थाना था, और बरगद के नीचे कोई लाल साफा बाँधे बैठा था। उसके आस-पास दस-बीस लाल पगड़ी वाले आदमी करबद्ध खड़े थे। वहाँ फटे-पुराने कपड़े पहने, दुर्भिक्ष-ग्रस्त पुरुष, जिस पर अभी चाबुकों की बौछार हुई थी, पड़ा सिसक रहा था। मुझे ध्यान आया कि यह मेरा प्यारा देश नहीं है, कोई और देश है। यह योरोप है, अमरीका है, मगर मेरी प्यारी मातृभूमि नहीं है–कदापि नहीं!

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book