कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 34 प्रेमचन्द की कहानियाँ 34प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग
विमल ने इस भाव से देखा मानो उसका बस होता, तो यह सारा ताप और दर्द खुद ले लेता। फिर आग्रह से बोला- नहीं-नहीं, आप लेटी रहें, मैं बैठ जाता हूँ। इसका अपराधी मैं हूँ। मैंने ही आपको इस जहमत में डाला। मुझे क्षमा कीजिए। मैंने आपसे वह काम लिया जो मुझे खुद करना चाहिये था। मैं अभी जाकर डाक्टर को बुला लाता हूँ। क्या कहूँ, मुझे जरा भी खबर न हुई। फ़िजूल के कामों में ऐसा फँसा रहा....
और उसने पीठ फेरी ही थी कि मंजुला ने हाथ उठाकर मना करते हुए कहा- नहीं-नहीं; डाक्टर की कोई जरूरत नहीं। आप जरा भी परेशान न हों। मैं बिलकुल अच्छी हूँ। कल तक उठ बैठूँगी।
उसके मन में और कितनी ही बातें उठीं, मगर उसने ओठ बन्द कर लिये। इस आवेश में वह न जाने क्या-क्या बक जाएगी। अभी तक विमल ने शायद उसे देवी समझकर उसके सामने सिर झुकाया है। उससे दूर अवश्य रहा है; मगर इसलिए नहीं कि वह समीप आना नहीं चाहता, बल्कि इसलिए कि अपनी सरलता में, अपनी साधना में, उसके समीप आने में झिझकता है, कि कहीं देवी को नागवार न गुजरे। विमल ने अपने मन में उसे जिस ऊँचे आसन पर बैठा दिया है उससे नीचे वह न आएगी। विमल को मालूम नहीं, वह कितना सात्विक, कितना विशालात्मा पुरुष है। ऐसे आदमी की स्मृति में हमेशा के लिए एक आकाश में उडऩे वाली, निष्कलंक, निष्कपट, सती की धुँधली छाया छोड़ जाना कितना बड़ा मोह है!
उसने विनोद-भाव से कहा- हाँ; क्यों नहीं; क्योंकि आप तो मनुष्य हैं और मैं काठ की पुतली।
‘नहीं आप देवी हैं।’
‘नहीं, एक नादान औरत।’
‘आपने जो कुछ कर दिखाया, वह मैं सौ जन्म लेकर भी न कर सकता था।’
‘उसका कारण भी आपने सोचा? यह स्त्री की विजय नहीं, उसकी हार है। अगर इन दोषों के साथ मैं स्त्री न होकर पुरुष होती, तो शायद इसकी चौथाई सफलता भी न मिलती। यह मेरी जीत नहीं, मेरी नारीत्व की जीत है। रूप तो असार वस्तु है, जिसकी कोई हक़ीकत नहीं। वह धोखा है, फरेब है, दुर्बलताओं के छिपाने का परदा मात्र!’
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