कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 34 प्रेमचन्द की कहानियाँ 34प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग
विमल को उसका यह उलाहना बुरा लगा। कहाँ अभी हास्य-विनोद में मग्न थी, कहाँ उसे देखते ही गम्भीरता की पुतली बन गयी। रूखे स्वर में बोला- हाँ, बहुत अच्छी तरह था। आप तो आराम से थीं?
मंजुला आर्द्र कण्ठ से बोली- मेरे भाग्य में तो आराम लिखा ही नहीं है, मिस्टर विमल। पिछले साल पति का देहान्त हो गया। उन्होंने जितनी जायदाद छोड़ी उससे ज्यादा कर्ज छोड़ा। इन्हीं उलझनों में पड़ी रही। स्वास्थ्य भी बिगड़ गया। डाक्टरों ने पहाड़ पर रहने की सलाह दी। तब से यहीं पड़ी हुई हूँ।
‘आपने मुझे खत तक न लिखा।’
‘आपके सिर यों ही क्या कम बोझ है कि मैं अपनी चिन्ताओं का भार भी रख देती?’
‘फिर भी एक मित्र के नाते मुझे खबर तो देनी ही थी।’
मंजुला ने स्वर में श्रद्धा भरकर कहा- आपका काम इन झगड़ों में पडऩा नहीं है, विमल बाबू। आपको ईश्वर ने सेवा और त्याग के लिए रचा है। वही आपका क्षेत्र है। मैं जानती हूँ, आपकी मुझ पर दयादृष्टि है। मैं कह नहीं सकती, मेरी नज़रों में उसका कितना मूल्य है। जिसे कभी दया और प्रेम न मिला हो वह इनकी ओर लपके तो क्षमा के योग्य है। आप समझ सकते हैं, उनका परित्याग करके मैंने कितनी बड़ी कुर्बानी की है; मगर मैंने इसी को अपना कर्तव्य समझा। मैं सब कुछ सह लूँगी; पर आपको देवत्व के ऊँचे आसन से नीचे न गिराऊँगी। आप ज्ञानी हैं, संसार के सुख कितने अनित्य हैं, आप खूब जानते हैं। इनके प्रलोभन में न आइए। आप मनुष्य हैं। आप में भी इच्छाएँ हैं; वासनाएँ हैं; लेकिन इच्छाओं पर विजय पाकर ही आपने यह ऊँचा पद पाया है। उसकी रक्षा कीजिए। और अध्यात्म ही आपकी मदद कर सकता है। उसकी साधना से आपका जीवन सात्विक होगा और मन पवित्र होगा।
विमल ने अभी-अभी मंजुला को आमोद-प्रमोद में क्रीड़ा करते देखा था। खन्ना से उसका सम्बन्ध किस तरह का है, यह भी वह समझ रहा था। फिर भी इस उपदेश में उसे सच्ची सहानुभूति का सन्देश मिला। विलासिनी मंजुला उसे देवी के रूप में नजर आयी। उसके भीतर का अहंकार उसकी लोलुपता से बलवान था। सद्भावना से भरकर बोला- देवीजी, आपने जिन शब्दों से मेरा सम्मान किया है उनके लिए आपका एहसानमन्द हूँ। कहिए, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?
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