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प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9795
आईएसबीएन :9781613015322

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग


राजा जुझारसिंह ने भी दक्षिण में अपनी योग्यता का परिचय दिया। वे केवल लड़ाई में ही वीर न थे, वल्कि राज-शासन में भी अद्वितीय थे। उन्होंने अपने सुप्रबंध से दक्षिण प्रांत को बलवान् राज्य बना दिया और वर्ष-भर के बाद बादशाह से आज्ञा लेकर वे ओरछे की तरफ चले। ओरछे की याद उन्हें सदैव बेचैन करती रही। आह ओरछा! वह दिन कव आवेगा कि फिर तेरे दर्शन होंगे। राजा मंजिलें मारते चले आते थे। न भूख थी, न प्यास, ओरछे वालों की मुहब्बत खींचे लिए आती थी। यहाँ तक कि ओरछे के जंगलों में आ पहुँचे। साथ के आदमी पीछे छूट गए। दोपहर का समय था। धूप तेज थी। वे घोडे से उतरे और एक पेड़ की छाँह में जा बैठे। भाग्यवश आज हरदौल भी जीत की खुशी में शिकार खेलने निकले थे। सैकड़ों बुंदेला सरदार उनके साथ थे। सव अभिमान के नशे में चूर थे। उन्होंने राजा जुझारसिंह को अकेले वैठे देखा, पर वे अपने घमंड में इतने डूबे हुए थे कि इनके पास तक न आए। समझे कोई यात्री होगा। हरदौल की आँखों ने भी धोखा खाया। वे घोड़े पर सवार अकड़ते हुछ जुझारसिंह के सामने आए और पूछना चाहते थे कि तुम कौन हो कि भाई से आँख मिल गई। पहचानते ही घोड़े से कूद पड़े और उनको प्रणाम किया। राजा ने भी उठकर हरदौल को छाती से लगाया पर उस छाती में अब भाई की मुहब्बत न थी। मुहब्बत की जगह ईर्ष्या ने घेर ली थी और केवल इसीलिए कि हरदौल दूर से ही नंगे पैर उनकी तरफ़ न दौड़ा। उसके सवारों ने दूर ही से उनकी अभ्यर्थना न की। संध्या होते-होते दोनों भाई ओरछे पहुचे। राजा के लौटने का समाचार पाते ही नगर में प्रसन्नता की दुंदुभी वजने लगी। हर जगह आनदोत्सव होने लगा और तुरताफुरती सारा शहर जगमगा उठा। आज रानी कुलीना ने अपने हाथों से भोजन बनाया। नौ बजे होंगे। लौंडी ने आकर कहा- ''महाराज, भोजन तैयार है।'' दोनों भाई भोजन करने गए। सोने के थाल में राजा के लिए भोजन परोसा गया और चाँदी के थाल में हरदौल के लिए।

कुलीना ने स्वयं भोजन बनाया था, स्वयं थाल परोसे थे और स्वयं ही सामने लाई थी, पर दिनों का चक्र कहो या भाग्य के दुर्दिन, उसने भूल से सोने का थाल हरदौल के आगे रख दिया और चाँदी का राजा के सामने। हरदौल ने कुछ ध्यान न दिया। वह वर्ष-भर से सोने के थाल में खाते-खाते उसका आदी हो गया था, पर जुझारसिंह तिलमिला गए। जबान से कुछ न बोले, पर तेवर बदल गार और मुँह लाल हो गया। रानी की तरफ़ घूर कर देखा और भोजन करने लगे, पर ग्रास विष मालूम होता था। दो-चार ग्रास खाकर उठ आए। रानी उनके तेवर देखकर डर गई। आज कैसे प्रेम से उसने भोजन बनाया था, कितनी प्रतीक्षा के बाद यह शुभ दिन आया था, उसके उल्लास का कोई पारावार न था, पर राजा के तेवर देखकर उसके प्राण सूख गए। जब राजा उठ गए और उसने थाल को देखा तो कलेजा धक् से हो गया और पैर तले से मिट्टी निकल गई। उसने सिर पीट लिया। ईश्वर! आज रात कुशलपूर्वक कटे, मुझे शकुन अच्छे दिखाई नहीं देते।

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