लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9795
आईएसबीएन :9781613015322

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

428 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग


राजा जुझारसिंह शीशमहल में लेटे। चतुर नाइन ने रानी का श्रृंगार किया और वह मुस्कुराकर बोली- ''कल महाराज से इसका इनाम लूँगी।'' यह कहकर वह चली गई, परंतु कुलीना वहाँ से न उठी। वह गहरे सोच में पड़ी हुई थी। उनके सामने कौन-सा मुँह लेकर जाऊँ। नाइन ने नाहक मेरा श्रृंगार कर दिया। मेरा श्रृंगार देखकर वे खुश भी होंगे? मुझसे इस समय अपराध हुआ है, मैं अपराधिनी हूँ मेरा उनके पास इस समय बनाव-श्रृंगार करके जाना उचित नहीं। नहीं, नहीं!! आज मुझे उनके पास भिखारिनी के भेष में जाना चाहिए। मैं उनसे क्षमादान मागूँगी। इस समय मेरे लिए यही उचित है। यह सोचकर रानी बड़े शीशे के सामने खड़ी हो गई। वह अप्सरा-सी मालूम होती थी। सुंदरता की कितनी ही तसवीरें उसने देखी थीं; पर उसे इस समय शीशे की तसवीर सबसे ज़्यादा खूबसूरत मालूम होती थी।

सुंदरता और आत्मरुचि का साथ है। हल्दी बिना रंग के नहीं रह सकती। थोड़ी देर के लिए कुलीना सुंदरता के मद से फूल उठी। वह तनकर खड़ी हो गई। लोग कहते हैं कि सुंदरता में जादू है और वह जादू जिसका कोई उतार नहीं! धर्म और कर्म, तन और मन, सब सुंदरता पर न्यौछावर हैं। मैं सुंदर न सही, ऐसी क्रुरूपा भी नही, हूँ। क्या मेरी सुंदरता में इतनी भी शक्ति नहीं है कि महाराज से मेरा अपराध क्षमा करा सके। ये बाहु-लताएँ जिस समय उनके गले का हार होगी, ये आँखें जिस समय प्रेम के मद से लाल होकर देखेंगी, तब क्या मेरे सौंदर्य की शीतलता उनकी क्रोधाग्नि को ठंडा न कर देगी? पर थोड़ी देर में रानी को ज्ञान हुआ। आह! यह मैं क्या स्वप्न देख रही हूँ! मेरे मन में ऐसी बातें क्यों आती हैं? मैं अच्छी हूँ या बुरी हूँ उनकी चेरी हूँ। मुझसे अपराध हुआ है, मुझे उनसे क्षमा माँगनी चाहिए। यह श्रृंगार और बनाव इस समय उपयुक्त नहीं है। यह सोचकर रानी ने सब गहने उतार दिए। इतर में बसी हुई हरे रेशम की साड़ी अलग कर दी। मोतियों से भरी माँग खोल दी और वह खूब फूट-फूटकर रोई। हाय! यह मिलाप की रात बिछुड़न की रात से भी विशेष दु:खदायिनी है। भिखारिनी का भेष बनाकर रानी शीशमहल की ओर चली। पैर आगे बढ़ते थे, पर मन पीछे हटा जाता था। दरवाजे तक आई; पर भीतर पैर न रख सकी। दिल धड़कने लगा। ऐसा जान पड़ा, मानो उसके पैर थर्रा रहे हैं। राजा जुझारसिंह बोले- ''कौन है? कुलीना? भीतर क्यों नहीं आ जातीं?''

कुलीना ने जी कड़ा करके कहा- ''महाराज! कैसे आऊँ, मैं अपनी जगह क्रोध को बैठा हुआ पाती हूँ।''

राजा- ''यह क्यों नहीं कहतीं मन दोषी है, इसलिए आँखें नहीं मिलाने देता।''

कुलीना- ''निस्संदेह मुझसे अपराध हुआ है, पर एक अबला आपसे क्षमा का दान माँगती है।''

राजा- ''इसका प्रायश्चित्त करना होगा।''

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book