कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 34 प्रेमचन्द की कहानियाँ 34प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग
कुलीना- ''क्यों कर?''
राजा- ''हरदौल के खून से।''
कुलीना सिर से पैर तक काँप गई। बोली- ''क्या इसीलिए कि आज मेरी भूल से ज्योनार के थालों में उलट-फेर हो गया?''
राजा- ''नहीं! इसीलिए कि हरदौल ने तुम्हारे प्रेम में उलट-फेर कर दिया।''
जैसे आग की आँच से लोहा लाल हो जाता है, वैसे ही रानी का मुँह लाल हो गया। क्रोध की अग्नि सद्भावों को भस्म कर देती है, प्रेम और प्रतिष्ठा, दया और न्याय, सब जल के राख हो जाते हैं। एक पल तक रानी को ऐसा मालूम हुआ, मानो दिल और दिमाग़ दोनों खौल रहे हैं पर उसने आत्मदमन की अंतिम चेष्टा से अपने को सम्हाला, केवल इतना बोली- ''हरदौल को मैं अपना लड़का और भाई समझती हूँ।''
राजा उठ बैठे और कुछ नर्म स्वर से बोले- ''नहीं, हरदौल लड़का नहीं है, लड़का मैं हूँ जिसने तुम्हारे ऊपर विश्वास किया। कुलीना! मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी। मुझे तुम्हारे ऊपर घमंड था। मैं समझता था चाँद, सूर्य टल सकते हैं, पर तुम्हारा दिल नहीं टल सकता। पर आज मुझे मालूम हुआ कि यह मेरा लड़कपन था। बड़ों ने सच कहा है कि स्त्री का प्रेम पानी की धार है, जिस ओर ढाल पाता है उधर ही बह जाता है।''
सोना ज्यादा गर्म होकर पिघल जाता है। कुलीना रोने लगी। क्रोध की आग पानी बनकर आँखों से निकल पड़ी। जब आवाज़ वश में हुई, तो बोली- ''मैं आपके इस संदेह को कैसे दूर करूँ?''
राजा- ''हरदौल के खून से।''
रानी- ''मेरे खून से दाग न मिटेगा?''
राजा- ''तुम्हारे खून से और पक्का हो जाएगा।''
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