कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 34 प्रेमचन्द की कहानियाँ 34प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग
रानी- ''और कोई उपाय नहीं है?''
राजा- ''नहीं।''
रानी- ''यह आपका अंतिम विचार है?''
राजा- ''हाँ; यह मेरा अंतिम विचार है। देखो, इस पानदान में पान का बीड़ा रक्खा है। तुम्हारे सतीत्व की परीक्षा यही है कि तुम हरदौल को इसे अपने हाथ से खिला दो। मेरे मन का भ्रम उसी समय निकलेगा, जब इस घर से हरदौल की लाश निकलेगी।''
रानी ने घृणा की दृष्टि से पान के बीड़े को देखा और वह उल्टे पैर लौट आई। रानी सोचने लगी- क्या हरदौल के प्राण लूँ? निर्दोष, सच्चरित्र, वीर हरदौल की जान से अपने सतीत्व की परीक्षा दूँ? उस हरदौल के खून से अपना हाथ काला करूँ जो मुझे बहन समझता है? यह पाप किसके सिर पड़ेगा? क्या एक निर्दोष का खून रंग न लाएगा? आह! अभागी कुलीना! तुझे आज अपने सतीत्व की परीक्षा देने की आवश्यकता पड़ी है और वह ऐसी कठिन। नहीं, यह पाप मुझसे न होगा। यदि राजा मुझे कुलटा समझते हैं तो समझें, उन्हें मुझ पर संदेह है तो हो। मुझसे यह पाप न होगा। राजा को ऐसा संदेह क्यों हुआ? क्या केवल थालों के बदल जाने से? नहीं, अवश्य कोई और बात है। आज हरदौल उन्हें जंगल में मिल गया था। राजा ने उसकी कमर में तलवार देखी होगी। क्या आश्वर्य है, हरदौल से कोई अपमान भी हो गया हो। मेरा अपराध क्या है? मुझ पर इतना बड़ा दोष क्यों लगाया जाता है? केवल थालों के बदल जाने से। हे ईश्वर! मैं किससे अपना दुःख कहूँ? तू ही मेरा साक्षी है। जो चाहे सो हो, पर मुझसे यह पाप न होगा।
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