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प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9795
आईएसबीएन :9781613015322

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग


रानी ने फिर सोचा- राजा, क्या तुम्हारा हृदय ऐसा ओछा और नीच है? तुम मुझसे हरदौल की जान लेने को कहते हो? यदि तुम से उसका अधिकार और मान नहीं देखा जाता तो क्यों साफ़-साफ़ ऐसा नहीं कहते? क्यों मरदों की लड़ाई नहीं लड़ते? क्यों स्वयं अपने हाथ से उसका सिर नहीं काटते? मुझसे वह काम करने को कहते हो। तुम खूब जानते हो मैं नहीं कर सकती। यदि मुझसे तुम्हारा जी उकता गया है, यदि मैं तुम्हारी जान की जंजाल हो गई हूँ तो मुझे काशी या मथुरा भेज दो। मैं बेखटके चली जाऊँगी, पर ईश्वर के लिए मेरे सिर इतना बड़ा कलंक न लगने दो। पर मैं जीवित ही क्यों रहूँ? मेरे लिए अब जीवन में कोई सुख नहीं है। अब मेरा मरना ही अच्छा है। मैं स्वयं प्राण दे दूँगी, पर यह महापाप मुझसे न होगा। विचारों ने फिर पलटा खाया। तुमको यह पाप करना ही होगा। इससे बड़ा पाप शायद आज तक संसार में न हुआ हो, पर यह पाप तुम को करना होगा। तुम्हारे पातिव्रत पर संदेह किया जा रहा है और तुम्हें इस संदेह को मिटाना होगा। यदि तुम्हारी जान जोखिम में होती, तो कुछ हर्ज न था। अपनी जान देकर हरदौल को बचा लेतीं, पर इस समय तुम्हारे पातिव्रत पर आँच आ रही है। इसीलिए तुम्हें यह पाप करना ही होगा और पाप करने के बाद हँसना और प्रसन्न रहना होगा। यदि तुम्हारा चित्त तनिक भी विचलित हुआ, यदि तुम्हारा मुखड़ा जरा-भी मध्यम हुआ, तो इतना बड़ा पाप करने पर भी तुम संदेह मिटाने में सफल न होगी। तुम्हारे जी पर चाहे जो बीते, पर तुम्हें यह पाप करना ही पड़ेगा परंतु कैसे होगा? क्या मैं हरदौल का सिर उतारूँगी? यह सोचकर रानी के शरीर में कँपकँपी आ गई। नहीं; मेरा हाथ उस पर कभी नहीं उठ सकता। प्यारे हरदौल! मैं तुम्हें विष नहीं खिला सकती। मैं जानती हूँ तुम मेरे लिए आनंद से विष का बीड़ा खा लोगे। हाँ, मैं जानती हूँ तुम नहीं न करोगे। पर मुझसे यह महापाप नहीं हो सकता; एक बार नहीं, हजार बार नहीं हो सकता।

हरदौल को इन बातों की कुछ भी खबर न थी। आधी रात को एक दासी रोती हुई उसके पास गई और उसने उससे सब समाचार अक्षर-अक्षर कह सुनाया। वह दासी पानदान लेकर रानी के पीछे-पीछे से राजमहल के दरवाजे तक गई थी और सब बातें सुनकर आई थी। हरदौल राजा का ढंग देखकर पहले ही ताड़ गया था कि राजा के मन में कोई-न-कोई काँटा अवश्य खटक रहा है। दासी की बातों ने उसके संदेह को और भी पक्का कर दिया। उसने दासी से कड़ी मनाही कर दी कि सावधान! किसी दूसरे के कानों में इन बातों की भनक न पड़े और वह स्वयं मरने के लिए तैयार हो गया।

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