कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 34 प्रेमचन्द की कहानियाँ 34प्रेमचंद
|
6 पाठकों को प्रिय 428 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग
हरदौल बुंदेलों की वीरता का सूरज था। उसकी भौंहों के तनिक इशारे से तीन लाख बुंदेले मरने और मारने के लिए इकट्ठे हो सकते थे। ओरछा उस पर न्यौछावर था। यदि जुझारसिंह खुले मैदान उसका सामना करता, तो अवश्य मुँह की खाता। क्योंकि हरदौल भी बुंदेला था और बुंदेला अपने शत्रु के साथ किसी प्रकार की मुँह देखी नहीं करते, मरना-मारना उनके जीवन का एक अच्छा दिल-बहलाव है। उन्हें सदा इसकी लालसा रहती है कि कोई हमें चुनौती दे, कोई हमें छेड़े। उन्हें सदा खून की प्यास रहती है और वह प्यास कभी नहीं बुझती, परंतु उस समय एक स्त्री को उसके खून की जरूरत थी और उसका साहस उसके कानों में कहता था कि एक निर्दोष और सती अबला के लिए अपने शरीर का खून देने में मुँह न मोड़ो। यदि भैया को यह संदेह होता कि ''मैं उनके रक्त का प्यासा हूँ और उन्हें मारकर राज पर अधिकार करना चाहता हूँ' तो कुछ हर्ज न था। राज्य के लिए क़तल और खून, दाग और फ़रेब सब उचित समझा गया है, परंतु उनके इस संदेह का निपटारा मेरे मरने के सिवा और किसी तरह नहीं हो सकता। इस समय मेरा धर्म है कि अपना प्राण देकर उनके इस संदेह को दूर कर दूँ। उनके मन में यह दु:खाने वाला संदेह उत्पन्न करके यदि मैं जीता ही रहूँ और अपने मन की पवित्रता जनाऊँ तो मेरी ढिटाई है। नहीं, इस भले काम में अधिक आगा-पीछा करना अच्छा नहीं। मैं खुशी से विष का बीड़ा खाऊँगा। इससे बढ़कर शूरवीर की मुत्यु और क्या हो सकती है? क्रोध में आकर, मारू के मन बढ़ाने वाले शब्द सुनकर रणक्षेत्र में अपनी जान को तुच्छ समझना इतना कठिन नहीं है। आज सच्चा वीर हरदौल अपने हृदय के बड़प्पन पर अपनी सारी वीरता और साहस न्यौछावर करने को उद्यत है।
दूसरे दिन हरदौल ने खूब तडके स्नान किया। बदन पर अस्त्र-शस्त्र साजे और वह मुस्कुराता हुआ राजा के पास गया। राजा भी सोकर तुरत ही उठे थे, उनकी अलसाई हुई आँखें हरदौल की मूर्ति की ओर लगी हुई थी। सामने संगमर्मर की चौकी पर विष मिला पान सोने की तश्तरी में रक्सा हुआ था। वह कभी पान की ओर ताकते और कभी मूर्ति की ओर, शायद उनके विवार ने इस विष की गांढ और उस मूर्ति में एक संवंध पैदा कर दिया था। उस समय जो हरदौल अचानक घर में पहुँचा तो राजा चौंक पड़े। उन्होंने सम्हल कर पूछा- ''इस समय कहाँ चले?''
हरदौल का मुखड़ा प्रफुल्लित था। वह हँसकर बोला- कल आप यहाँ पधारे हैं, इसी खुशी में मैं आज शिकार खेलने जाता हूँ। आपको ईश्वर ने अजीत बनाया है, मुझे अपने हाथ से विजय का बीड़ा दीजिए।''
|