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प्रेमचन्द की कहानियाँ 35

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9796
आईएसबीएन :9781613015339

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग


बादशाह- ''जागीर और मंसब भी?''

रानी- ''हाँ राज्य भी।''

बादशाह- ''एक घोड़े के लिए?''

रानी- ''नहीं उस पदार्थ के लिए जो संसार में सबसे अधिक मूल्यवान् है।''

बादशाह- ''वह क्या है?''

रानी- ''अपनी आन।''

इस भाँति रानी ने एक घोड़े के लिए अपनी विस्तृत जागीर, उच्च राज्यपद और राजसम्मान सब हाथ से खोया और केवल इतना ही नहीं, भविष्य के लिए काँटे बोए। इस घड़ी से अंत दशा तक चंपतराय को शांति न मिली।

राजा चंपतराय ने फिर ओरछे के किले में पदार्पण किया। उन्हें मंसब और जागीर के हाथ से निकल जाने का अत्यंत शोक हुआ, किंतु उन्होंने अपने मुँह से शिकायत का एक शब्द भी नहीं निकाला, वे सारंधा के स्वभाव को भली भाँति जानते थे। शिकायत इस समय उसके आत्मगौरव पर कुठार का काम करती। कुछ दिन यहाँ शांतिपूर्वक व्यतीत हुए लेकिन बादशाह सारंधा की कठोर बातें भूला न था। वह क्षमा करना जानता ही न था। ज्यों ही भाइयों की ओर से निश्चिंत हुआ, उसने एक बड़ी सेना चंपतराय का गर्व चूर्ण करने के निमित्त भेजी और बाइस अनुभवशील सरदार इस मुहिम पर नियुक्त किए। शुभकरण बुँदेला बादशाह का सूबेदार था। वह चंपतराय का बचपन का मित्र और सहपाठी था। उसने चंपतराय को परास्त करने का बीड़ा उठाया। और भी कितने ही बुँदेला सरदार राजा से विमुख होकर बादशाही सूबेदार से आ मिले। एक घोर संग्राम हुआ। भाइयों की तलवारें भाइयों ही के रक्त से लाल हुईं यद्यपि इस समर में राजा को विजय प्राप्त हुई, लेकिन उनकी शक्ति सदा के लिए क्षीण हो गई। निकटवर्ती बुँदेला राजे जो चंपतराय के बाहुबल थे, बादशाह के कृपाकांक्षी बन बैठे। साथियों में कुछ तो काम आए, कुछ दगा कर गए। यहाँ तक कि निज संबंधियों ने भी आँखें चुरा लीं, परंतु इन कठिनाइयों में भी चंपतराय ने हिम्मत नहीं हारी। धीरज को न छोड़ा। उसने ओरछा छोड़ दिया, और वह तीन वर्ष तक बुँदेलखंड के सघन पर्वतों पर छिपा फिरता रहा।

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