कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 35 प्रेमचन्द की कहानियाँ 35प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग
परशुराम ने फरसा संभालते हुए दांत पीसते हुए कहा- क्या कहूं, तेरी उमर तुझे बचा रही है, वरना अब तक तेरा सिर तन से जुदा कर देता।
लक्ष्मण- कहीं इस भरोसे मत रहियेगा। आप फूंककर पहाड़ नहीं उड़ा सकते। आप ब्राह्मण हैं इसलिए आपके ऊपर दया आती है। शायद अभी तक आपका किसी क्षत्रिय से पाला नहीं पड़ा। जभी आप इतना बिफर रहे हैं।
रामचन्द्र ने देखा कि बात बढ़ती जा रही है, तो लक्ष्मण का हाथ पकड़कर बिठा दिया और परशुराम से हाथ जोड़कर बोले- महाराज! लक्ष्मण की बातों का आप बुरा न मानें। यह ऐसा ही धृष्ट है। यह अभी तक आपको नहीं जानता, वरना यों आपके मुंह न लगता। इसे क्षमा कीजिये, छोटों का कुसूर बड़े माफ किया करते हैं। आपका अपराधी मैं हूं, मुझे जो दण्ड चाहें, दें। आपके सामने सिर झुका हुआ है।
रामचन्द्र की यह आदरपूर्ण बातचीत सुनकर परशुराम कुछ नर्म पड़े कि एकाएक लक्ष्मण को हंसते देखकर फिर उनके बदन में आग लग गयी। बोले- राम! तुम्हारा यह भाई अति धृष्ट है। विनय और शील तो इसे छू तक नहीं गया। जो कुछ मुंह में आता है, बक डालता है। रंग इसका गोरा है। पर दिल इसका काला है। ऐसा अशिष्ट लड़का मैंने नहीं देखा।
अभी तक तो लक्ष्मण, परशुराम को केवल छेड़ रहे थे, किन्तु ये बातें सुनकर उन्हें क्रोध आ गया। बोले- सुनिये महाराज! छोटों का काम बड़ों का आदर करने का है, किन्तु इसकी भी सीमा होती है। आप अब इस सीमा से बढ़े जा रहे हैं। आखिर आप क्यों इतना अप्रसन्न हो रहे हैं? आपके बिगड़ने से तो धनुष जुड़ न जायगा। हां, जगहंसाई अवश्य होगी। अगर यह धनुष आपको ऐसा ही प्रिय है, तो किसी कारीगर से जुड़वा दिया जायगा। इसके अतिरिक्त और हम क्या कर सकते हैं। आपका क्रोध बिलकुल व्यर्थ है।
मारे क्रोध के परशुराम की आंखें बीरबहूटी की तरह लाल हो गयीं। वह थरथर कांपने लगे। उनके नथुने फड़कने लगे। रामचन्द्र ने उनकी यह दशा देखकर लक्ष्मण को वहां से चले जाने का इशारा किया और अत्यन्त विनीत भाव से बोले- महाराज! बड़ों को छोटे, कमसमझ आदमियों की बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिये। इसके बकने से क्या होता है। हम सब आपके सेवक हैं। धनुष मैंने तोड़ा है। इसका दोषी मैं हूं। इसका जो दण्ड आप उचित समझें मुझे दें। आप इसका जो दण्ड मांगें, मैं देने को तैयार हूं।
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