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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797
आईएसबीएन :9781613015346

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


दस साल गुज़र गए। एक रोज गुजराती ने मेरे पास एक नाई के हाथों निमंत्रण-पत्र भिजवाया। मैंने नवेद पढ़ा तो बेअख्तियार उसे कबूल कर लिया। गुजराती ने अपना नया मकान बनवाया था। उसका ग्रह-प्रवेश धूम से होनेवाला था। गुजराती ने मुझसे बहुत मिन्नत की थी कि बहन तुम जरूर आओ, नहीं जो मुझे रंज होगा। और मैं फिर तुम्हें कभी अपना मुँह न दिखाऊँगी। मुझे ताज्जुब हुआ कि गुजराती को नया मकान बनवाने की तौफ़ीक़ (सामर्थ्य) क्योंकर हुई? रोटियाँ ही बड़ी मुश्किल से चलती थीं। घर क्योंकर बनवा लिया? उत्सव की मुकर्रर तारीख को मैं अपने मौजा में जा पहुँची। गुजराती ऐसी खुश हुई, गोया अंधा आँखें पा जाए। मेरे पैरों पर गिर पड़ी और रोकर बोली- ''मैं जानती थी कि तुम ज़रूर-से-ज़रूर आओगी। मेरा मन कहता था कि तुम मुझे भूली नहीं हो।''

यह कहकर वह मुझे अपने नए घर में ले गई। कच्चा मकान था, मगर पटा हुआ। दरवाज़ा पर विस्तृत सहन। एक तरफ़ पक्का कुआँ और इससे लगा हुआ शिवजी का मंदिर था। अंदर का आँगन भी चौड़ा, चारों तरफ़ बरामदे, कमरे हवादार। सोंधी-सोंधी मिट्टी की खुशबू आ रही थी और अगरचे धूप तेज थी, मगर अंदर एक खास तरावट मालूम होती थी।

मैंने कहा- ''ऐसा मकान तो सारे गाँव में न होगा। देखकर जी खुश हो गया।''

गुजराती ने गर्व के भाव से से कहा- ''बहन जी, यह सब तुम्हारी दया है; मेरे दिल में यही अरमान था, वह पूरा हो गया। आठ साल हो गए। मैंने दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा। चार-चार पंसेरी गेहूँ रोज़ रात को पीसती थी। दिन-भर मजूरी करती थी। गाँव-भर के कपड़े सीती थी और सच्ची बात तो यह है कि गाँव वालों की कृपा नहीं होती तो मेरा क्या होता, किसी ने लकड़ी दी, किसी ने बाँस दिए, घर तैयार हो गया। इस लड़के को जन्म दिया, इसकी नाव तो किसी तरह पार लगानी ही थी। आँखें होतीं तो कौन चिंता थी। कमा खाता, लेकिन जब भगवान ने आँखें ले लीं तो इसके बैठने का ठिकाना करना मेरा धरम हो गया। नहीं तो बेचारे को कौन पूछता? बाप रहता तो यह बोझ उसके सर पड़ता। अब तो उनका बोझ भी मुझी को उठाना पड़ेगा। उनके नाम को रोने और नसीब को कोसने से थोड़े ही कुछ होता है।''

इसी दौरान में गुजराती का लड़का भी अंदर आ गया। उसके जिस्म पर एक जाफ़रानी रंग का कुरता था। धोती पीले रंग की थी। खड़ाऊँ पहने हुए था। चेहरे से मासूमियत बरस रही थी। गुजराती ने कहा- ''बेटा, तम्हारी मौसी आई हैं। इन्हें कुछ सुनाओ।''

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