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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797
आईएसबीएन :9781613015346

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


हा! हृदय में कैसी-कैसी अभिलाषाएँ थीं, कैसे-कैसे मनमोदक खाता था। शिवविलास, विलायत जाकर डॉक्टरी पढ़ने का स्वप्न देख रहा है। संतविलास को वकालत की धुन सवार, छोटा श्रीविलास अभी से सिविल सर्विस की तैयारी कर रहा है। अब इन सभी के मंसूबे कैसे पूरे होंगे। लड़कों को तो खैर छोड़ भी दूँ तो वह किसी-न-किसी तरह गुजर कर ही लेंगे, लड़कियों को क्या करूँ। सोचा था इनका विवाह उच्च-कुल में करूँगा, जाति का भेद मिटा दूँगा। यह मनोकामना भी पूरी होती नहीं दीखती। कहीं दूसरी जगह नौकरी की तलाश करूँ तो इतना वेतन कहीं मिला जाता है। रईसों के दरबार में पहुँचना कठिन है। सरकार की अवज्ञा करनेवाले को धरती-आकाश कहीं ठिकाना नहीं। परमात्मन्, तुम्हीं सुझाओ क्या करूँ?

इन्हीं चिंताओं में पड़े-पड़े उन्हें नींद आ गई।

एक सप्ताह बीत गया, पर बाबू हरिविलास अभी तक दुविधा में ही पड़े थे। वह प्राय: उदास और खिन्न रहते थे। इजलास पर बहुत कम आते और आते भी तो मुक़दमों की तारीख मुल्तबी करके फिर चले जाते। लड़के-लड़कियों से भी बहुत कम बातचीत करते, बात-बात पर झुँझला पड़ते; कुछ चिड़चिड़े हो गए थे। उन्होंने स्त्री से इस समस्या की चर्चा की, पर वह इस्तीफ़ा देने पर उनसे सहमत न हुई। उसमें न्याय का वह मान न था जो हरिविलास के हृदय को व्यथित कर रहा था। लड़कों से इस विषय में कुछ कहने का उन्हें साहस न होता था। डरते थे कि वह निराश, निरुत्साह हो जाएँगे। आनंदमय जीवन की कैसी-कैसी कल्पनाएँ कर रहे होंगे, वह सब नष्ट हो जाएँगो। इस विषय में तो अब उन्हें कोई संदेह न था कि सरकार ने सत्पथ को त्याग दिया और उसकी नौकरी से मेरा उद्धार नहीं हो सकता, पर सांसारिक चिंताएँ गले की जंजीर बनी हुई थीं। कोई ऐसा हुनर, कोई ऐसा उद्यम न जानते थे जिस पर उन्हें भरोसा होता, यहाँ तक कि साधारण क्रय-विक्रय भी उनके लिए कष्टसाध्य था। वह अपने को इस नौकरी के सिवा और किसी काम के योग्य न पाते थे और न अब इतना सामर्थ्य ही था कि कोई नया उद्यम सीख सकें। स्वार्थ और कर्त्तव्य की उलझन में उनकी अत्यंत करुण दशा हो रही थी।

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