कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 36 प्रेमचन्द की कहानियाँ 36प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग
प्रवीण अपने को बायरन, शेली आदि से जौ-भर भी कम न समझते थे। वह अँग्रेजी के कवि थे। उनकी भाषा, शैली, विषय-व्यंजना सभी अँग्रेज की रुचि के अनुकूल था। उनका अनुवाद करना वह अपने लिए गौरव की बात न समझते थे, उसी तरह जैसे वे उनकी रचनाओं का अनुवाद करना अपने लिए गौरव की वस्तु न समझते। बोले- हमारे यहाँ आत्म-दर्शन का अभी इतना अभाव नहीं है, कि हम विदेशी कवियों से भिक्षा माँगें। मेरा विचार है कि कम-से-कम इस विषय में भारत अब भी पश्चिम को कुछ सिखा सकता है।
यह अनर्गल बात थी। अँग्रेजी के भक्त महाशय ने प्रवीण को पागल समझा।
राजा साहब ने प्रवीण को ऐसी आँखों से देखा, जो कह रही थीं- जरा मौका-महल देखकर बातें करो! और बोले- अंग्रेजी साहित्य का क्या पूछना! कविता में तो वह अपना जोड़ नहीं रखता।
अंग्रेजी के भक्त महाशय ने प्रवीण को सगर्व नेत्रों से देखा- हमारे कवियों ने अभी तक कविता का अर्थ ही नहीं समझा, अभी तक वियोग और नख-शिख को कविता का आधार बनाये हुए हैं।
प्रवीण ने ईंट का जवाब पत्थर से दिया- मेरा विचार है कि आपने वर्तमान कवियों का अध्ययन नहीं किया, या किया तो उतरी आँखों से।
राजा साहब ने अब प्रवीण की जबान बन्द कर देने का निश्चय किया- आप मिस्टर परांजपे हैं, प्रवीण जी! आपके लेख अंग्रेजी पत्रों में छपते हैं और बड़े आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं।
उसका आशय यह था, कि अब आप न बहकिए।
प्रवीण समझ गये। परांजपे के सामने उन्हें नीचा देखना पड़ा। विदेशी वेश-भूषा और भाषा का यह भक्त जाति-द्रोही होकर भी इतना सम्मान पाये, यह उनके लिए असह्य था। पर क्या करते?
उसी भेष के एक-दूसरे सज्जन आये। राजा साहब ने तपाक से उनका अभिवादन किया- आइए डाक्टर चड्ढा! कैसे मिजाज हैं?
डाक्टर साहब ने राजा साहब से हाथ मिलाया और फिर प्रवीण की ओर जिज्ञासा-भरी आँखों से देखकर पूछा- आपकी तारीफ़?
राजा साहब ने प्रवीण का परिचय दिया- आप महाशय प्रवीण हैं। आप भाषा के अच्छे कवि और लेखक हैं।
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