लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9798
आईएसबीएन :9781613015353

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

158 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग


रात को किसी ने खाना नहीं खाया। मैं भी उदास बैठा हुआ था कि विक्रम आकर बोला, 'चलो, होटल से कुछ खा आयें। घर में तो चूल्हा नहीं जला।'

मैंने पूछा, तुम डाकखाने से आये, 'तो बहुत प्रसन्न क्यों थे।'

उसने कहा, ज़ब मैंने डाकखाने के सामने हजारों की भीड़ देखी, तो मुझे अपने लोगों के गधेपन पर हँसी आयी। एक शहर में जब इतने आदमी हैं, तो सारे हिन्दुस्तान में इसके हजार गुने से कम न होंगे। और दुनिया में तो लाख गुने से भी ज्यादा हो जायँगे। मैंने आशा का जो एक पर्वत-सा खड़ा कर रखा था, वह जैसे एकबारगी इतना छोटा हुआ कि राई बन गया, और मुझे हँसी आयी। जैसे कोई दानी पुरुष छटाँक-भर अन्न हाथ में लेकर एक लाख आदमियों को नेवता दे बैठे और यहाँ हमारे घर का एक-एक आदमी समझ रहा है कि...

मैं भी हँसा 'हाँ, बात तो यथार्थ में यही है और हम दोनों लिखा-पढ़ी के लिए लड़े मरते थे; मगर सच बताना, तुम्हारी नीयत खराब हुई थी कि नहीं?'

विक्रम मुस्कराकर बोला, 'अब क्या करोगे पूछकर? परदा ढँका रहने दो।'

0 0 0

 

2. लोकमत का सम्मान

बेचू धोबी को अपने गाँव और घर से उतना ही प्रेम था, जितना प्रत्येक मनुष्य को होता है। उसे रूखी-सूखी और आधे पेट खाकर भी अपना गाँव समग्र संसार से प्यारा था। यदि उसे वृद्धा किसान स्त्रियों की गालियाँ खानी पड़ती थीं तो बहुओं से 'बेचू दादा' कहकर पुकारे जाने का गौरव भी प्राप्त होता था। आनन्द और शोक के प्रत्येक अवसर पर उसका बुलावा होता था, विशेषतः विवाहों में तो उसकी उपस्थिति वर और वधू से कम आवश्यक न थी। उसकी स्त्री घर में पूजी जाती थी, द्वार पर बेचू का स्वागत होता था। वह पेशवाज पहने कमर में घंटियाँ बाँधे साजिन्दों को साथ लिये एक हाथ मृदंग और दूसरा अपने कान पर रख कर जब तत्कालरचित बिरहे और बोल कहने लगता तो आत्मसम्मान से उसकी आँखें उन्मत्त हो जाती थीं। हाँ, धेले पर कपड़े धोकर भी वह अपनी दशा से संतुष्ट रह सकता था, किन्तु जमींदार के नौकरों की क्रूरता और अत्याचार कभी-कभी इतने असह्य हो जाते थे कि उसका जी गाँव छोड़कर भाग जाने को चाहने लगता था। गाँव में कारिन्दा साहब के अतिरिक्त पाँच-छह चपरासी थे। उनके सहवासियों की संख्या कम न थी। बेचू को इन सज्जनों के कपड़े मुफ्त धोने पड़ते थे। उसके पास इस्तरी न थी। उनके कपड़ों पर इस्तरी करने के लिए उसे दूसरे-दूसरे गाँव के धोबियों की चिरौरी करनी पड़ती थी। अगर कभी बिना इस्तरी किये ही कपड़े ले जाता तो उसकी शामत आ जाती थी। मार पड़ती, घंटों चौपाल के सामने खड़ा रहना पड़ता, गालियों की वह बौछार पड़ती कि सुननेवाले कानों पर हाथ रख लेते, उधर से गुजरनेवाली स्त्रियाँ लज्जा से सिर झुका लेतीं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book