कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 37 प्रेमचन्द की कहानियाँ 37प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग
एक महीने तक दिन-रात, मार-काट के मार्के होता रहे। हमेशा आग और गोलों और जहरीली हवाओं का तूफ़ान उठा रहता। इन्सान थक जाता था, पर कलें अथक थीं। जयगढ़ियों के हौसले पस्त हो गये, बार-बार हार पर हार खायी। असकरी को मालूम हुआ कि जिम्मेदारी फ़तेह में चाहे करिश्मे कर दिखाये, पर शिकस्त में मैदान हुक्म की पाबन्दी ही के साथ रहता है। जयगढ़ के अखबारों ने हमले शुरू किये। असकरी सारी क़ौम की लानत-मलामत का निशाना बन गया। वही असकरी जिस पर जयगढ़ फ़िदा होता था सबकी नज़रों का कांटा हो गया। अनाथ बच्चों के आंसू, विधवाओं की आहें, घायलों की चीख-पुकार, व्यापारियों की तबाही, राष्ट्र का अपमान-इन सबका कारण वही एक व्यक्ति असकरी था। कौम की अगुवाई सोने की राजसिंहासन भले ही हो पर फूलों की मेज वह हरगिज नहीं। जब जयगढ़ की जान बचने की इसके सिवा और कोई सूरत न थी कि किसी तरह विरोधी सेना का सम्बन्ध मन्दौर के क़िले से काट दिया जाय, जो लड़ाई और रसद के सामान और यातायात के साधनों का केंद्र था। लड़ाई कठिन थी, बहुत खतरनाक, सफ़लता की आशा बहुत कम, असफ़लता की आशंका जी पर भारी। कामयाबी अगर सूखे धान का पानी थी तो नाकामी उसकी आग। मगर छुटकारे की और कोई दूसरी तस्वीर न थी।
असकरी ने मिर्जा जलाल को लिखा- ‘प्यारे अब्बाजान, अपने पिछले खत में मैंने जिस जरूरत का इशारा किया था, बदक़िस्मती से वह जरूरत आ पड़ी। आपका प्यारा जयगढ़ भेडियों के पंजे में फंसा हुआ है और आपका प्यारा असकरी नाउम्मीदों के भंवर में, दोनों आपकी तरफ़ आस लगाये ताक रहे हैं। आज हमारी आखिरी कोशिश, हम मुखालिफ़ फ़ौज को मन्दौर के किले से अलग करना चाहते हैं। आधी रात के बाद यह मार्का शुरू होगा। आपसे सिर्फ इतनी दरख्वास्त है कि अगर हम सर हथेली पर लेकर किले के सामने तक पहुँच सकें, तो हमें लोहे के दरवाज़े से सर टकराकर वापस न होना पड़े। वर्ना आप अपनी क़ौम की इज्जत और अपने बेटे की लाश को उसी जगह पर तड़पते देखेंगे और जयगढ़ आपको कभी मुआफ़ न करेगा। उससे कितनी ही तकलीफ़ क्यों न पहुँची हो मगर आप उसके हक़ों से सुबुकदोश नहीं हो सकते।’
शाम हो चुकी थी, मैदाने जंग ऐसा नज़र आता था कि जैसे जंगल जल गया हो। विजयगढ़ी फ़ौज एक खूंरेज मार्के के बाद ख़न्दकों में आ रही थी, घायल मन्दौर के क़िले के अस्पताल में पहुँचाये जा रहे थे, तोपें थककर चुप हो गयी थीं और बन्दूकें जरा दम ले रही थीं। उसी वक्त जयगढ़ी फ़ौज का एक अफ़सर विजयगढ़ी वर्दी पहने हुए असकरी के खेमे से निकला, थकी हुई तोपें, सर झुकाये हवाई जहाज, घोडों की लाशें, औंधी पड़ी हुई हवागाडियां, और सजीव मगर टूटे-फूटे किले, उसके लिए पर्दे का काम करने लगे। उनकी आड़ में छिपता हुआ वह विजयगढ़ी घायलों की क़तार में जा पहुँचा और चुपचाप जमीन पर लेट गया।
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