कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 37 प्रेमचन्द की कहानियाँ 37प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग
इंदिरा को महल से निकालकर और उसकी ओर से निश्चिन्त होकर कुछ दिनों से ईर्ष्या के कारण नेपथ्य में चली गई पद्मा की स्वाभाविक सज्जनता प्रकट हो जाती है और वह प्राणपन से ज्ञान सिंह की सेवा करती है। इस आशा तथा शोक की दशा में यदि वह कुछ खाता है तो उसी के आग्रह से, घूमने जाता है तो उसी के कहने से, रियासत का कामकाज देखता है तो उसी के संकेत से। वह कभी गीत गाकर, कभी कहानी सुनाकर उसका मनोरंजन करती है। लेकिन प्रायः रातों में राजा की नींद उचट जाती है और वह इंदिरा को याद करके बेचैन हो जाता है। तब उसके सीने में ईर्ष्या की आग भड़क उठती है। इंदिरा किसी पराए की होकर रहे, यह विचार उसके लिए असहनीय है। वह तपस्विनी बनकर रहती तो सम्भवतः उसके चरणों की धूल मस्तक पर धरता लेकिन वह पराए के पार्श्व में है, यह सोचकर उसके तन-बदन में आग लग जाती है।
ज्ञान सिंह के भेदिए और जासूस चारों ओर फैले हुए हैं। एक दिन उसे सूचना मिलती है कि इंदिरा सांगली के एक गाँव में है। ज्ञान सिंह उसी समय कुछ परखे हुए सिपाहियों और जान छिड़कने वाले मित्रों को साथ लेकर इंदिरा और हरिहर की खोज में चल पड़ता है। पद्मा उसे रोकती है, मिन्नतें करती है लेकिन वह तनिक भी परवाह नहीं करता। अन्ततः विवश होकर वह भी उसके साथ चल पड़ती है। सभी घोड़ों पर सवार हैं और डबल चाल चल रहे हैं। कठिन पहाड़ी रास्ता है। ज्ञान सिंह और पद्मा अपने साथ वालों से बहुत आगे निकल जाते हैं। अचानक उनका सामना कई सशस्त्र डाकुओं से हो जाता है। अपने पिस्तौल से पद्मा दो आदमियों को नरक का मार्ग दिखा देती है, शेष डाकू भाग खड़े होते हैं। कई दिन पश्चात् यह जत्था उस गाँव में पहुँच जाता है जहाँ इंदिरा और हरिहर शान्ति का जीवन जी रहे हैं।
बात की बात में खबर फैल जाती है कि राजा ज्ञान सिंह इंदिरा और हरिहर को बन्दी बनाने के लिए चढ़ आए हैं। आसपास के किसान लाठियाँ, गंडासे और कुल्हाड़े लेकर आते हैं। इंदिरा और हरिहर दोनों दलों के बीच में आकर खड़े हो जाते हैं। उन्हें देखते ही ज्ञान सिंह तलवार खींचकर उन पर झपटता है। इंदिरा और हरिहर वहीं सिर झुकाकर बैठ जाते हैं और परमात्मा का ध्यान करने लगते हैं। हरिहर की गर्दन पर तलवार पड़ने ही वाली है कि पद्मा आ जाती है और लपककर राजा के हाथ से तलवार छीन लेती है। दोनों प्रेम-दीवानों की बहादुरी और समर्पण देखकर ज्ञान सिंह की आँखें खुल जाती हैं। सहसा उसके हृदय में उस प्रकाश का प्राकट्य होता है जिसके समक्ष दुर्बलताएँ और वासनाओं की उद्दंडताएँ नष्ट हो जाती हैं। वह एक मिनट तक चुप खड़ा रहता है, फिर इंदिरा के पाँवों पर गिर पड़ता है। पद्मा राजा साहब को उनके जीवन का अन्त कर देने वाले दुष्कर्म से बचाकर उनका मन जीत लेती है।
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