कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 37 प्रेमचन्द की कहानियाँ 37प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग
क़ासिम एक मिनट तक मूरत की तरह खड़ा शहजादी को देखता रहा। काली-काली लटें खुलकर उसके गालों को छिपाये हुए थी। गोया काले-काले अक्षरों में एक चमकता हुआ शायराना खयाल छिपा हुआ था। मिट्टी की इस दुनिया में यह मजा, यह घुलावट, वह दीप्ति कहां? कासिम की आंखें इस दृश्य के नशे में चूर हो गयीं। उसके दिल पर एक उमंग बढाने वाला उन्माद सा छा गया, जो नतीजों से नहीं डरता था। उत्कण्ठा ने इच्छा का रूप धारण किया। उत्कण्ठा में अधीरता थी और आवेश, इच्छा में एक उन्माद और पीड़ा का आनन्द। उसके दिल में इस सुन्दरी के पैरों पर सर मलने की, उसके सामने रोने की, उसके क़दमों पर जान दे देने की, प्रेम का निवेदन करने की, अपने गम का बयान करने की एक लहर-सी उठने लगी वह वासना के भंवर में पड़ गया।
क़ासिम आध घंटे तक उस रूप की रानी के पैरों के पास सर झुकाये सोचता रहा कि उसे कैसे जगाऊँ। ज्यों ही वह करवट बदलती वह ड़र के मारे थरथरा जाता। वह बहादुरी जिसने मुलतान को जीता था, उसका साथ छोड़े देती थी। एकाएक कसिम की निगाह एक सुनहरे गुलाबपोश पर पड़ी जो करीब ही एक चौकी पर रखा हुआ था। उसने गुलाबपोश उठा लिया और खड़ा सोचता रहा कि शहज़ादी को जगाऊँ या न जगाऊँ या न जगाउँ? सोने की डली पड़ी हुई देखकर हमें उसके उठाने में आगा-पीछा होता है, वही इस वक्त उसे हो रहा था। आखिरकार उसने कलेजा मजबूत करके शहजादी के कान्तिमान मुखमंण्डल पर गुलाब के कई छींटे दिये। दीपक मोतियों की लड़ी से सज उठा।
शहज़ादी ने चौंकर आंखें खोलीं और क़ासिम को सामने खड़ा देखकर फौरन मुंह पर नक़ाब खींच लिया और धीरे से बोली- मसरूर।
क़ासिम ने कहा- मसरूर तो यहां नहीं है, लेकिन मुझे अपना एक अदना जांबाज़ ख़ादिम समझिए। जो हुक्म होगा उसकी तामील में बाल बराबर उज्र न होगा।
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