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प्रेमचन्द की कहानियाँ 38

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9799
आईएसबीएन :9781613015360

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अड़तीसवाँ भाग


तीन वर्ष तक किसी को कुछ भी पता न लगा कि ‘भारत महिला’ कौन है। निदान प्राणनाथ से न रहा गया। उन्हें विरजन पर भक्ति हो गयी थी। वे कई मास से उसका जीवन-चरित्र लिखने की धुन में थे। सेवती के द्वारा धीरे-धीरे उन्होंने उसका सब जीवन चरित्र ज्ञात कर दिया और ‘भारत महिला’ के शीर्षक से एक प्रभाव-पूरित लेख लिया। प्राणनाथ ने पहिले लेख न लिखा था, परन्तु श्रद्वा ने अभ्यास की कमी पूरी कर दी थी। लेख अत्यन्त रोचक, समालोचनात्मक और भावपूर्ण था।

इस लेख का मुद्रित होना था कि विरजन को चारों तरफ से प्रतिष्ठा के उपहार मिलने लगे। राधाचरण मुरादाबाद से उसकी भेंट को आये। कमला, उमादेवी, चन्द्रकुंवर और सखियां जिन्होनें उसे विस्मरण कर दिया था प्रतिदिन विरजन के दर्शनों को आने लगीं। बडे-बडे गणमान्य सज्ज्न जो ममता के अभिमान से हाकिमों के सम्मुख सिर न झुकाते, विरजन के द्वार पर दर्शन को आते थे। चन्द्रा स्वयं तो न आ सकी, परन्तु पत्र में लिखा- जी चाहता है कि तुम्हारे चरणों पर सिर रखकर घंटों रोऊँ।

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5. विद्रोही

आज दस साल से जब्त कर रहा हूँ। अपने इस नन्हे-से हृदय में अग्नि का दहकता हुआ कुण्ड छिपाये बैठा हूँ। संसार में कहीं शान्ति होगी, कहीं सैर-तमाशे होंगे, कहीं मनोरंजन की वस्तुएँ होंगी; मेरे लिए तो अब यही अग्निराशि है और कुछ नहीं। जीवन की सारी अभिलाषाएँ इसी में जलकर राख हो गयीं। किससे अपनी मनोव्यथा कहूँ? फायदा ही क्या? जिसके भाग्य में रुदन, अनंत रुदन हो, उसका मर जाना ही अच्छा।

मैंने पहली बार तारा को उस वक्त देखा, जब मेरी उम्र दस साल की थी। मेरे पिता आगरे के एक अच्छे डाक्टर थे। लखनऊ में मेरे एक चचा रहते थे। उन्होंने वकालत में काफी धन कमाया था। मैं उन दिनों चचा ही के साथ रहता था। चचा के कोई सन्तान न थी; इसलिए मैं ही उनका वारिस था। चचा और चची दोनों मुझे अपना पुत्र समझते थे। मेरी माता बचपन ही में सिधार चुकी थीं। मातृ-स्नेह का जो कुछ प्रसाद मुझे मिला, वह चचीजी ही की भिक्षा थी। वही भिक्षा मेरे उस मातृ-प्रेम से वंचित बालपन की सारी विभूति थी।

चचा साहब के पड़ोस में हमारी बिरादरी के एक बाबू साहब और रहते थे। वह रेलवे-विभाग में किसी अच्छे ओहदे पर थे। दो-ढाई सौ रुपये पाते थे। नाम था विमलचन्द्र। तारा उन्हीं की पुत्री थी। उस वक्त उसकी उम्र पाँच साल की होगी। बचपन का वह दिन आज भी आँखों के सामने है, जब तारा एक फ्रॉक पहने, बालों में एक गुलाब का फूल गूंथे हुए मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी। कह नहीं सकता, क्यों मैं उसे देखकर झेंप-सा गया। मुझे वह देव-कन्या सी मालूम हुई, जो उषा-काल के सौरभ और प्रकाश से रंजित आकाश से उतर आयी हो।

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