कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 38 प्रेमचन्द की कहानियाँ 38प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अड़तीसवाँ भाग
चची ने सारा-का-सारा वृत्तान्त कह सुनाया और विमल को जितने काले रंगों में रंग सकीं, रंगा- 'तुमसे क्या कहूँ बेटा, ऐसा मुँहफट तो आदमी ही नहीं देखा। हजारों ही गालियाँ दीं, लड़ने पर आमादा हो गया।
मैंने एक मिनट तक सन्नाटे में खड़े रहकर कहा, 'अच्छी बात है, वहाँ न जाऊँगा। बैरक जा रहा हूँ।
चची बहुत रोयीं-चिल्लायीं; पर मैं एक क्षण-भर भी न ठहरा। ऐसा जान पड़ता था, जैसे कोई मेरे हृदय में भाले भोंक रहा है। घर से बैरक तक पैदल जाने में शायद मुझे दस मिनट से ज्यादा न लगे होंगे। बार-बार जी झुँझलाता था; चचा साहब पर नहीं, विमल बाबू पर भी नहीं, केवल अपने ऊपर। क्यों मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है कि जाकर चचा साहब से कह दूं क़ोई मुझे लाख रुपये भी दे, तो शादी न करूँगा। मैं क्यों इतना इरपोक, इतना तेजहीन, इतना दब्बू हो गया?
इसी क्रोध में मैंने पिताजी को एक पत्र लिखा और वह सारा वृत्तांत सुनाने के बाद अन्त में लिखा मैंने निश्चय कर लिया है कि और कहीं शादी न करूँगा, चाहे मुझे आपकी अवज्ञा ही क्यों न करनी पड़े। उस आवेश में न जाने क्या-क्या लिख गया, अब याद भी नहीं। इतना ही याद है कि दस-बारह पन्ने दस मिनट में लिख डाले थे। सम्भव होता तो मैं यही सारी बातें तार से भेजता।
तीन दिन मैंने बड़ी व्यग्रता के साथ काटे। उसका केवल अनुमान किया जा सकता है। सोचता, तारा हमें अपने मन में कितना नीच समझ रही होगी। कई बार जी में आया कि चलकर उसके पैरों पर गिर पङूँ और कहूँ- 'देवी, मेरा अपराध क्षमा करो चचा साहब के कठोर व्यवहार की परवाह न करो मैं तुम्हारा था और तुम्हारा हूँ। चचा साहब मुझसे बिगड़ जायँ, पिताजी घर से निकाल दें, मुझे किसी की परवा नहीं है; लेकिन तुम्हें खोकर मेरा जीवन ही खो जायगा।'
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